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मिच्छतं अविरमणं कषायजोगा य पासवा होति ।
परणबारस पणवीसा पाणरसा होति तब्भेको ।४१ . मिथ्यात्व के भेद-एकांत मिथ्यात्व, विपरीत मिथ्यात्व, विनय मिथ्यात्व, प्रधान सिध्यात्व, संशय मिथ्यात्व ये पाँच मिथ्यात्व के भेद होते हैं । उसमें उत्पाद व्यय, प्रौव्यात्मक जीव अजीवादि,द्रव्य,शरीर इन्द्रिय प्रादि ये एक समय के बाद अनेक प्रकार से भिन्न भिन्न रूप में उत्पन्न होते हैं, इन सभी को नित्य हो कहना या इनको क्षणिक ही कहना, या किसी पात्र में या किसी भोजनादि में पड़े तो उसे पवित्र मानना इत्यादि एकांत पक्ष को लेकर मानने वाले बौद्धादिक के दुर्नयाभास एकांत मिथ्यात्व है।
सदोष देव को सत्य देव कहना, बाल, उन्मत्त तथा पिशाच-गृहीत के समान पाचारण करने वाले योगी के प्राचरण को ही योगीका लक्षण मानना सथा 'हिंसाविक से होने वाले पशु के मांस खाने में दोष नहीं हैं' कहना या इसको हिसा नहीं मानना ये सभी विपरीत मिथ्यात्व है।
देव, राजा, माता, पिता, तपस्वी, शास्त्रज्ञ, वृस बालक इत्यादि सभाको गुरुत्व भाव का भेद न करके सुवर्ण दान देकर इन सभी को समान भाव से अर्थात् गुरु की रष्टि रखकर मन,वचन, और काय से विनय करना विनय मिथ्यात्व है ।
बंध,मोक्ष, बंध कारण, मोक्ष कारण, ये संसार के कारण हैं या मोक्ष के कारण हैं इत्यादि शंका करना इसको संशय मिथ्यात्व कहते हैं।
अजीव, पुण्य, पाप, आस्रव, संवर निर्जरा बंध मोक्ष ये नए पदार्थ इन सबको किसने देखा है, इस तरह अपने मन में मिथ्याविश्वास करके अपने माने हुए अज्ञान दर्शन को ही प्रमाण मानना इसका नाम अज्ञान मिथ्यात्व है।
एयंत बुद्धदरसी विवरीयो बम्हतावसो विरणयो। इंवोदि य संसडियोम ककडियो चेव अण्णाणी ।४२॥
अर्थ – बुद्ध दर्शन एकान्त, ब्राह्म बिपरीत, तापारी विनय, इन्द्र संशय और मस्करी प्रज्ञान मिथ्यात्वी है।
षड् जीव निकाय-संयम, षड इंद्रिय-संयम, ये संयम के १२ भेद होते और सोलह कषाय नी नोकषाय, ये सभी मिलकर पच्चीस कषाय होते है। पन्द्रह प्रकार के योग होते हैं । ये सभी मिलकर ५७ भावानव होते हैं । अब ये किस २ गुणस्थान में होते हैं सो बतलाते है
पणवरणं पण्णासं तिदाल छादाल सत्ततिसाया। चवीसदुबाचीसा सोलस रागाजावरणव सत्ता ४३।