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________________ ( ६३ ) द्वादशगरण परिष्कृत पवित्रतर क्षेत्र प्रथम पीठ, द्वितीय पीठ १०, तथा सिंह विष्टरवाली तृतीय पीठ भूमि ११, इस प्रकार कुल ११ भूमियां उस समयशरण में होती हैं । उसमें सबसे पहले धुलिशाल कोट बना रहता है। जो कि पंचवर्ण रत्नों के चूर्ण से बना हुआ होता है। जिसके चारों भोर चार दरवाजे होते हैं। उन दरवाजों में से होकर जब भीतर आगे बढ़ें तो वहां मार्ग में सबसे पहले मानस्तम्भ आते हैं जो कि चारों दिशाओंों में चार होते हैं । हरेक मानस्तम्भ चारों श्रोर चार दरवाजों वाले ३ परकोटों से घिरा हुआ होता है । वह वहां ३ पीठिकामरान वेदी पर बना रहता है। उसके चारों और चार सरोवर बने रहते हैं । उन एक-एक सरोवर के प्रति ४२ कुण्ड होते हैं । उन मानस्तम्भों में मस्तक के ऊपर चारों दिशाओं में चार बिम्ब होते हैं, जिनका इन्द्रादिक देव निरन्तर अभिषेक किया करते हैं । उन मानस्तम्भों को देखकर दुरभिमानी मिथ्यादृष्टी लोगों का मान गलित हो जाता है । इसीलिये उनको मानस्तम्भ कहते हैं । उसके बाद प्रासाद चैत्यभूमि आती है। यहां पर एक चैत्यालय होता है, जो कि वापी, कूप, तड़ाग तथा वन खण्ड से मंडित पांच-पांच प्रासादों से युक्त होता है । यह सब रचना दो गव्यूति के विस्तार में होती है ॥ १ ॥ उसके आगे वेदी आती है, जो कि चांदी की बनी हुई होती है । श्रौर मरियों से बने हुये सोपानों की पंक्ती से युक्त होती है। जिसके चारों और चार द्वार सुवर के बने हुये रहते हैं। उन गोपुरों के ऊपर ज्योतिष्क देव द्वारपाल का काम करते हैं । उस वेदी के भीतर की ओर जब कुछ ग्रागे चलें तो जल की भरी हुई खातिका प्राती । वह खातिका नाना प्रकार की सुवर्णमय सीढ़ियों से युक्त होती है । उस खाई में कमल खिले हुये होते हैं और हंस चक्रवाकादिक जलचर जीव मधुर शब्द करते हुये किलोल करते रहते हैं । उसी में सुर, विद्याघर वगैरह भी जलक्रीड़ा करते रहते हैं । उस खाई के दोनों तटों पर नाना प्रकार के लता मंडप बने रहते हैं । वह खाई १ योजन के विस्तार में होती है । इसके आगे रजत की बनी हुई और मरियों से जड़ित ऐसी सोपान पंक्ति से युक्त १ सुवर्णमय वेदी प्राती है। जिसके चारों ओर चार दरवाजे होते हैं, जिनके ऊपर ज्योतिष्क देव द्वारपाल का काम करते हैं । इसके प्रागे १ योजन विस्तार में वल्ली वन आता है। जिसमें पुन्नाग, तिलक, बकुल, माधवी कमल इत्यादि नाना प्रकार की लतायें सुशोभित होती । उनलतानों के ऊपर गन्ध-लुब्ध भोरे मंडराते रहते हैं । उसी बल्ली वन में
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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