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सुगन्धयुक्त फूल वाले लता मण्डप बने हुये होते हैं। जिन में सुर-मिथुन क्रीडा करते रहते हैं । इसके आगे सुवर्णमय परकोटा पाता है जो कि रजत और मरिणयों से बने हुये सोपानों से युक्त होता है । उसके चारों ओर चारों द्वारों पर यक्षकुमार द्वारपाल का काम करते हैं । फनाड़ी श्लोक.---
त्रिदश मिथुन प्रसंगदि । उदित महाराग विहंगकुल निस्थाद पु-।। रिदे से वशोक सप्त। च्छद चंपक चूतवनचतुष्टय मक्कु ॥१३॥
अशोक, सप्तच्छद, क तथा ग्राम ये वन होते हैं। इन वनों में इसो नाम वाला एक-एक चैत्य-वृक्ष भी होता है । जोकि चार दरवाजों वाले तीनतीन परकोटों से युक्त और ३ पीठ के ऊपर प्रतिष्ठापित होता है। जिसके मूल भाग में चारों दिशाओं में अर्हन्त भगवान के बिम्ब विराजमान होते हैं, जोकि पाठ प्रकार के प्रातिहार्यो से सुशोभित हुआ करते हैं। इन चैत्यवृक्षों के परिकर स्वरूप मन्दार, मेरु, पारिजात, ताल, हिन्ताल, तमाल, जम्बू, जम्बीर प्रादि नाना प्रकार के वृक्ष तथा कृत्रिम नदी क्रीड़ागिरि, लताभवन आदि आदि की रचना होती है । इन कृतगिरियों के ऊपर मन्द मन्द पवन से हिलती हुई ध्वजायें भी हैं । इसके आगे चलने पर दोनों भागों में ६२ नाट्यशालायें होती हैं, जोकि चन्द्रमा के समान सफ़ेद बर्ण तथा तीन तीन खंड वाली होती हैं। एक एक नाट्यशाला में बत्तीस बत्तीस नाटक स्थल होते हैं जिसके प्रत्येक स्थल में बत्तीस बत्तीस नर्तकियां नृत्य करती हुई भगवान का यश गान करती हैं। इन नाट्यशालाओं के समीप धूप-घट होते हैं। जिनमें से कालागर वगैरह धूप का धुआँ निकलकर दो कोस तक फैलता रहता है । यह उपवन भूमि एक योजन विस्तार में होती है। इसके आगे एक स्वर्ण वेदिका पाती है, जिसके चारों तरफ चार दरवाजे होते हैं । जोकि सुवर्ण और मरिगमय सोपानों से युक्त तथा यक्ष नामक द्वारपालों से संरक्षित होते हैं। इसके तीसरे भाग में आगे जाकर ध्वजस्थल पाता है।
गजसिंह वृषभ गरुड़ा । म्युजमाला हंसचक्रशिखि वस्त्र मोह । ध्वजवु तत्परिवार । ध्वज ध्वजभूमियोळ् विराजिसुत्तिकुंम् ॥१४॥
गज, सिंह, वृषभ, गरुड़, अम्बुजमाला, हंस, चक्र, शिखि ( मयूर ), वस्त्र तथा ब्रीहि इन दस प्रकार के चिन्हों से चिन्हित