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________________ पुलिन्न, नाहल (म्लेच्छविशेष) और किरात प्रभृति, सथा दीन, अनाथ, क्रूर और जो नाना प्रकार की व्याधि एवं वेदना से युक्त हैं, हाथों में खप्पर सथा. भिक्षा पात्र को लिए हुए हैं, और देशान्तर गमन से संतप्त है, .ऐसे बहुत से मनुष्य दीखते हैं। __ इस प्रकार दुःषमाकाल में धर्म, आयु और ऊंचाई प्रादि कम होती जाती है। फिर अन्त में विषम स्वभाव वाला इक्कीसवां कल्की उत्पन्न होता है। उसके समय में वीरांगज नामक एक मुनि, सर्वश्री नामक आर्यिका तथा. अग्निदत्त ( अग्निल ) और पंगुश्री नामक श्रावक-युगल ( श्रावक-श्राविका ) होते हैं। वह कल्की आज्ञा से अपने योग्य जनपदों को सिद्ध करके मंत्रिबरों से कहता है कि ऐसा कोई पुरुष तो नहीं है जो मेरे वश में न हो ? तब मंत्री निवेदन करते हैं कि हे स्वामिन् ! एक मुनि आप के वश में नहीं है । तब कल्की कहता है कि कहो वह अविनीत मुनि कौन है ? इसके उत्तर में मंत्री कहते हैं कि हे स्वामिन् ! सकल अहिंसाव्रत का आधारभूत बद्द मुनि शरीर की स्थिति के निमित्त दूसरों के घर द्वारों पर काय दिखलाकर मध्याह्नकाल में अपने हाथों में विघ्नरहित शुद्ध भोजन ग्रहण करता है । इस प्रकार मंत्री के वचन सुनकर वह कल्की कहता है कि वह अहिंसावत का धारी पापी कहां जाता है, यह तुम स्वयं सर्वप्रकार से पता लगायो। उस पात्मघाती मुनि के प्रथम पिण्ड को शुल्क के रूप में ग्रहण करो । तत्पश्चात् (कल्की की आज्ञानुसार) प्रथम पिण्ड के मांगे जाने पर मुनीन्द्र तुरन्त उसे देकर और अन्तराय जान कर वापिस चले जाते हैं तथा अवधि ज्ञान को प्राप्त करते हैं। प्रसन्नचित्त होते हुए अपने संघ को कहते हैं कि अब दुःषमाकाल का अन्त पा चुका है, तुम्हारी और हमारी तीन दिन की आयु शेष है और यह अन्तिम कल्की है। तब वे चारों जन चार प्रकार के आहार और परिग्रहादिक को जन्मपर्यन्त छोड़कर संन्यास को ग्रहण करेंगे। वे सब कार्तिक मास के कृष्ण पक्ष के अन्त में प्रर्थात् अमावस्या के दिन सूर्य के स्वाती नक्षत्र के ऊपर उदित रहने पर सन्यास ले करके, समाधिमरण को प्राप्त करेंगे। सोहम्मे जायते कत्तिय अमवास सादि पूर्वकण्हे । इगिजल हिटिदी मुनिणों सेतिए साहियं पल्वं ।।८६०।। -.... - . ... .. . ... ....m
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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