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________________ || श्री वीतरागाय नमः ॥ मगर दिल का जिस क्षेत्र श्री माघनंद्याचार्यविरचित शास्त्रसारसमुच्चय कानड़ी टीका श्री प्राचार्य १०८ देशभूषण जी महाराज के द्वारा हिंदी भाषानुवाद मंगला चररण श्री विबुधवद्यजिनरं केवल चित्सुखद सिद्धपरमेष्ठिगळं ॥ भावजजयिसाधुगळं भाविसि पोडमट्ट पडेवेनक्षयसुखमं ॥ अर्थ---मैं (माघनंद्याचार्य) प्रविवश्वर सुख की प्राप्ति के लिये, चतुर्निकाय देवों द्वारा वंदनीय श्री श्ररहंत तथा आत्मसुख में रमण करने वाले सिद्ध परमेष्ठी, आत्म तत्व की साधना में तल्लीन रहने वाले आचार्य, उपाध्याय और साधु ऐसे पंच परमेष्ठियों को नमस्कार करता हूं । इस प्रकार मंगलाचरण करके ग्रंथकार प्राचार्य श्री माघनंदी शास्त्र रचना करने की प्रतिज्ञा करते हैं कि- मैं श्री वीर भगवान् के द्वारा कहे गये शास्त्रसार समुन्यम की वृत्ति को कहूंगा। जो वृत्ति संपूर्ण संसारी जीवों के लिये सार सुख प्रदान कर अनंत गुण संपत्ति को देने वाली होगी ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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