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( २५ ) . आयुकर्म की वर्तमान स्थिति विनाश होते ही, जन्मान्तर के कारण भूत जन्मान्तरबंध मनुष्य प्रादि आयु स्थिति के योग्य, संसारी जीवों का मरण, सायुर्मरण है।
इसके भी दो भेद हैं, (१) निर्गशा सायुर्मरण (२) सगुण सायुमरण ।
यति धर्म और श्रावक धर्म में उत्तरोत्तर प्राचरणपूर्वक अत्यन्त विशुद्ध चारित्र सहित होने वाले मरण को सगुणसायुमरगा कहते हैं ।
यति धर्म और श्रावक धर्म दोनों प्रकार की धार्मिक भावनाओं से शून्य जो मरण होता है उसे दुर्म गण यानी निगंगा सायुमरगा कहते हैं ।
वर्तमान तथा भावी जन्म के सम्पर्ण आयुकर्म को इंगिति करके, केबलज्ञानपूर्वक निर्वाण पद प्राप्त करने को निरायुर्मरण कहते हैं।
अब सल्लेखना की विधि का वर्णन करते हैं ।
ममाधि मरण के इच्छुक दिव्य तपस्वियों के लिए जिनागम में यह आदेश है कि समाधि मरण की विधि से परिपूर्ण ज्ञानी, अत्यन्त चतुर प्राचार्य, यदि पांच सौ कोस दूर हो, तो उन प्राचार्यदेव के निकट, मन्द-मन्द गति से ईयापथ शुद्धि पूर्वक पहुंचे । अपने समस्त दोषों को प्रगट करते हुए, आत्मनिन्दा,
गर्हणा श्रादि आलोचना करके, अपने दोषों की निवृत्ति के लिए, उनके द्वारा - दिये हये प्रायश्चित्त को लेकर, अन्त में शारीरिक रोग और दुर्बलता आदि देखकर
वह प्राचार्य, समाधि-मरण के इच्छुक तगम्ची की शेष नायु के समय को जान लेते हैं, पश्चात् वे सुचतर याचार्य अपने मन में विचारते हैं कि "यह अपने कल्याण के लिए इच्छुक है, अत: इस भव्य को समाधि-मरण करादेना चाहिए। इस प्रकार सोच समझकर चार प्रकार के गोपुर सहित समचतुष्क एक पाराधना मण्डप, गृहस्थों के द्वारा तैयार करवाते हैं, इसके बीच में. शुद्ध मिट्टी के द्वारा समचतुष्क अर्थात् चौकोर बेदी तैयार कर, पूर्व अथवा उत्तर दिशा की ओर वीतराग सर्वज्ञ देव की मूर्ति को, पूजा अर्चना-पूर्वक स्थापित नरके वेदी में समाधि के इच्छुक्रा इस तपस्वी को, उस प्रतिमा के निकट मुख करके, पर्यत अथवा एक पार्श्व पर बिटाकार, तोरणा, भांति-भांति की ध्वजाएं, चन्दन, कालागुरु, दी धूप, भृगार कलम दर्पण, अठारह धान्य, मादल फल (विजौरा) तीन छत्र, चन्बर आदि मंगल द्रव्यों से पुण्य धाम को सुशोभित करे फिर अभीष्ट थी भगवज्जिनेन्द्र देव के अभिषेक पूर्वक, पूजा अर्चादि से महान अाराधना के पश्चात् आचार्य अपने संघ के निवासियों को बुलाकर मण्डप के पर्व द्वार पर प्रथमानुयोग को पढ़ते हुए, सात मुनियों को नियुक्त कर देते हैं । इसी भांति