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( ५६ ) [ भोजन ] किये भी शरीर को स्वस्थ रखने वाली अनुपम पुदुगलवर्न गाओं के प्राप्त होने रूप क्षायिक लाभ, भोगान्तराय के नष्ट हो जाने से देवों द्वारा पुष्प वृष्टि आदि क्षायिक भोग, उपभोगान्तराय के क्षय होने से दिव्य सिंहासन, लहू, रहर, मनवेश आदि के होने रूप क्षायिक उपभोग और बोयोन्तराय -के क्षय हो जाने से लोकालोक-प्रकाशक अनन्त ज्ञान को सहायक अनन्त बल प्रगट होता है। इसका क्षायिक ज्ञान, दर्शन, सम्यक्त्व, चारित्र, दान, लाभ, भोग, उपभोग और वीर्य [बल ] ये लब्धियां केवल ज्ञानी अवस्था में होती हैं। श्राविर्भूत अनन्त ज्ञान दर्शन सुख वीर्यं सम्यक्त्व चारित्र दान लाभ
भोग उपभोग आदि अनन्त गुणमय, स्फटिक मणिराम निर्मल, सूर्य बिम्ब सम
देदीप्यमान परमोदारिक शरीर धारी, निरामय, निरञ्जन, निर्विकारः शुद्धस्वरूप, दोषकालातीत निष्कलंक सहन्त देव को नमस्कार है ।
भोगान्तराय के क्षय से अनंत भोग यानी पुष्प वृष्टि इत्यादि अनन्त भोग की प्राप्ति होती है । उपभोगान्तराय के क्षय से अनन्त भोग की प्राप्ति, सिंहासन, छत्रत्रय, चौसठचमर अष्ट प्रातिहार्य, परिकर समम्वित समवशरणविभूति और वीर्यान्तराय कर्म के नाश से अनन्त वीर्य, अनन्त सुख, अनंत श्रवगाहक, अनंत अवकाश, अव्या-वाधत्व इत्यादि गुण उत्पन्न होते हैं । इस · प्रकार भगवान् के परम आरहंत नाम का चौथा कल्यानक हुआ ।
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आविभू तानन्त ज्ञान, दर्शन, सुख, वीर्य, विरति क्षायिकसम्यक्त्व, दान, लाभ, भोगोपभोग श्रादि अनंत गुणात्वादि, हात्म सवात्कृत सिद्धस्वरूपः, स्फटिक मरिण के और सूर्य बिम्ब के समान देदीप्यमान जो शरीर परिमाए होकर भी ज्ञान से व्याप्त शुद्ध रूप स्वस्तिता शेष, प्रमेयत्व प्राप्त विश्वरूप, निर्गताशेष, मयत्वतो, निरामयः, विगत्ताशेष, पापांजन पुंजत्व रूप निरंजन दोषकलातीतत्वतो निष्कलंक: स्तेभ्यो नमः | इस प्रकार सयोग केवली गुण स्थान का सूक्ष्म किया प्रतिपाती नामक तृतीय शुक्ल ध्यान के बाद प्रयोग केवली गुणस्थान में पंच ह्रस्वस्वरोच्चारण प्रमाण काल में निराश्रव द्वार वाले समस्त शीलगुण मणिभूषण वाले होकर मूलोत्तर कर्मप्रकृति स्थित्यनुभाग प्रदेश दयोदोरण सब को व्युपरत किया निवर्तिनाम का चतुर्थ शुक्ल ध्यान से सम्पर कर्म को नाश करके सिद्धत्व को प्राप्त किया है । अब जिस दिन मोक्ष गये उस दिन को बताते हैं ।