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.( १४३ ) वैमानिक देवों का वर्णन:
द्विविधा वैमानिकाः ॥ ५ ॥
अर्थ —कल्पज और कल्पातीत वैमानिक देवों के दो भेद हैं। इन्द्र प्रतीन्द्रादि विकल्प वाले कल्पवासी देव होते हैं। और जहाँ पर इन्द्रादिक भेद न होकर सभी समान रूप से अहमिन्द्र हों उनको कल्पातीत कहते हैं : .
षोडश स्वर्गाः ।।६॥
अर्थ-कल्प की अपेक्षा से सौधर्म, ईशान, सानकुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्रागत, पारण और अच्युत ये १६ स्वर्ग हैं। इन १६ स्वर्गों के १२ इन्द्र होते हैं। सौधर्मादि चार कल्पों में सौधर्मेन्द्र ईशानेन्द्र, सानत्कुमार तथा महेन्द्र ऐसे चार इन्द्र हैं । मध्य में आठ कल्पों के पूर्वापर युगलों के एक एक इन्द्र होते हैं । जैसे ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर का ब्रह्मन्द्र, लान्तब कापिष्ट का लान्तवेन्द्र, शुक्र और महाशुक्र का शुक्रन्द्र, शतार और सहस्रार सहस्रारेन्द्र । ग्रानतादि चार वल्पों में आनतेन्द्र, प्राणतेन्द्र, आरणेन्द्र, तथा अच्युतेन्द्र ये चार इन्द्र हैं। इनके साथ १२ प्रतीन्द्र मिलकर कल्पेन्द्र २४ होते हैं।
नय वेयकाः ॥७॥
अर्थ-अधो वेयकत्रय, (३) मध्य वेयकत्रय, (३) उपरिम वेयकत्रय, (३) ये ग्रेवेयक के नी भेद हैं। . नवानुदिशाः ॥ ८ ॥
अर्थ-अचि, अधिमालिनी, बैर, वैरोचन ये पूर्वादि दिशाओं के ४ श्रेणीबद्ध हैं । सोम, सोमरूप, अंक तथा स्फटिक ये चार आग्नेयादि दिशानों के प्रकीर्णक हैं। बीच का इन्द्रक विमान मिलकर अनुदिशों के नौ विमान होते हैं।
__ पंचानुत्तराः ॥॥
अर्थ---विजय, वैजयन्त, जयन्त और अपराजित ये चार पूर्वादि दिशाओं के श्रेणीबद्ध विमान हैं और मध्य में सर्वार्थसिद्धि का बिमान है ।
मेरुतलावु दिवड्ढे दिबढदलछक्कएक्करज्जुम्हि। . कप्पारणमट्ट जुगला गेवज्जादी य होति कमे ॥२॥
मेरु पर्वत के मूल से लेकर डेढ़ १६ रज्जू उत्सेध पर सौधर्म, ईशानकल्प, उससे ऊपर १३ डेढ़ रज्जू ऊपर में सनत्कुमार, और माहेन्द्र कल्प हैं।