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वहाँ से ऊपर साधी प्राधी रज्जू के अन्तर में ऊपर के छः युगल हैं । वहाँ से ऊपर १ रज्जु ऊंचाई पर नव वेयकादि विमान हैं ।
कल्प तथा कल्पातीत क्षेत्र का अन्तर अपने अपने इन्द्रक के ध्वजदण्ड तक ही ग्रन्त है। उससे आगे ऊपर में क्रम से नवर्स वेयकादि कल्पातीत विमान हैं उससे कुछ ऊपर जाकर लोकान्त है ।
" त्रिषष्ठि पटलानि" ॥१०॥
ऋतु, विमल, चन्द्र वल्गु, अरुण, नन्दन, नलिन, काञ्चन, रोहित, चरि चतु, मरुत रुद्दिष, वैडूर्य, रुचिक, रुचिर, अंक, स्फटिक, तपनीय, मेघ, अभ्र, हरिद्र, पद्म, लोहित, बज्र, नन्द्यार्क, प्रभंकर, प्रष्टक, गज, मित्र और प्रभा ऐसे ३१ सौधर्मकि के पटल हैं ।
'अ'जन, वनमाली, नाग, गरुड, लांगल, बलभद्र, चक्र मे सात सनत्कुमार द्विक के पटल हैं ।
अरिष्ट, सुरसमिति, ब्रह्म ब्रह्मोत्तर ये चार ब्रह्मद्विक के पटल हैं ब्रह्म, हृदय, लांव, ये पटल लांतवद्विक के हैं, शुक्र, विमान एक है वह शुक्र द्विक के लिए है ।
सतार विमान एक ही सतार द्वय का है ।
श्रान्त प्राप्त पुष्पक ऐसे तीन पटल आनतद्विक के हैं । शातक धारण, अच्युत ये तीन पटल आरणद्विक के हैं। सुदर्शन, प्रमोध, सुप्रबुद्ध ये तीन पटल अधो ग्रैवेयक के हैं । यशोधर सुभद्र, विशाल ये तीन पटल मध्यम वेयक के हैं। सुमनस, सोमनस, प्रीतंकर ये तीन विमान उपरिम प्रवेयक के हैं। श्रादितेन्द्र यह नवानुदिश का एक पटल है ।
सर्वार्थ सिद्धि इन्द्रक नाम का एक पटल पंचानुत्तर का है ।
ये सभी मिलकर सठ इन्द्रका विमान होते हैं। इसका खुलासा इस
प्रकार है:
मेरु पर्वत शिखर पर ४० योजन ऊंची मूल तल विस्तार वाली, मध्य में चार योजन विस्तार वाली चूलिका सुमेरु नामक महिपति के मुकुट में लगे हुए बेडूर्य मरिण के है । उस चुलिका के ऊपर कुरुभूमिज मनुष्य के बालाग्र के करते हुए ) ऋजु विमान है । वह मनुष्य क्षेत्र के १४५ लाख योजन का प्रमाण है । उसी प्रमाण सिद्ध क्षेत्र से नीचे बारह योजन अन्तर में सर्वार्थ सिद्धि है ।
में बारह योजन
है जोकि मन्दर
समान प्रतीत होती
अन्तर से ( स्पर्श न
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