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( १८ )
अनुमति त्याग
घर गृहस्थाश्रम के किसी भी कार्य में अपनी अनुमति (इजाजत) तथा सम्मति देने का त्याग कर देना अनुमति त्याग प्रतिमा है ।
इस प्रतिमा का धारक अपने पुत्र आदि को किसी व्यापारिक तथा घरसम्बन्धी कार्य करने, न करने की किसी भी तरह की सम्मति नहीं देता । उदासीन होकर चैत्यालय आदि में स्वाध्याय, सामायिक श्रादि प्राध्यात्मिक कार्य करता रहता है । भोजन का निर्माण स्वीकार करके रोक कर याता
है ।
उद्दिष्ट त्याग
अपने उद्देश्य से बनाये गये भोजन ग्रहण करने का त्याग करना उद्दिष्टत्याग प्रतिमा है ।
श्रावक का यह सर्वोच्च आचरण है। इस प्रतिमा का धारक घर छोड़ कर मुनियों के साथ रहने लगता है, मुनियों के समान गोचरी के रूप में जहां पर ठीक विधि से भोजन मिल जाये वहाँ भोजन लेता है । निमन्त्रण से भोजन नहीं
करता ।
इस प्रतिमा के धारक के जो कौपीन [ लंगोटी ] सोते समय सिर से पैर तक सारा हैं, अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता तथा एक कमण्डलु और मोर के पंखों की पीछी भी रखता है ।
दो भेद हैं १- क्षुल्लक, २ - ऐलक । और एक खण्ड वस्त्र शरीर न ढक सके]
[ छोटी चादर, जो कि पहनने के लिये रखता
ऐलक - केवल लंगोटी पहनता हूँ अन्य कोई वस्त्र उसके पास नहीं होता । यहाँ यह बात ध्यान रखनी चाहिये कि मागे की प्रतिमा धारण करने वाले को उससे पहले की प्रतिमाओं के यम, नियम आचरण करना आवश्यक है। त्रिविधो निर्वेगः ॥ ११॥
अर्थ -- निवेग तीन प्रकार का है -१ संसार निर्वेग, २ शरीर निवेंग, ३ भोग निर्देग |
चतुर्गति रूप संसार में जन्म मरण, चिन्ता, आकुलता, भूख प्यास मादि दुःखों का प्राप्त होना प्रत्येक जीव के लिए अनिवार्य है, अतः दुःखपूर्ण संसार से विरक्त होना संसार - निवेंग है ।
शरीर आत्मा के लिए कागागर ] जेल ] के समान है । रक मांस हड्डी का पुतला है, पीप, दट्टी, पेशाब, कफ बुक आदि घृणित पदार्थो का भंडार है,