________________
(१६०)
रोगों से भरा हुआ है । ऐसे शरीर से विरक्त होना शरीर-नियंग है ।
• इन्द्रियों के विषय भोग आत्मा की तृष्णा को अष्टाते हैं, पाप अर्जन कराते हैं, आत्मा को चिन्तित व्याकुल करते हैं, प्रात्म-शक्ति क्षीण करते हैं, भोगने के पश्चात् नीरस हो जाते हैं. ऐसा विचार कर भोगों से विरक्त होना भोग-निर्वग है।
सप्त व्यसनानि ॥१२॥ अर्थ...-प्रात्मा को दुखदायक, प्रात्मा का पतन कराने वाली आदतों को व्यसन कहते हैं। व्यसन ७ प्रकार के हैं-१ जुना खेलना, २ मांस खाना, ३ मद्य पान, ४ वेश्यागमन, ५ शिकार खेलना, ६ मोरी करना, ७ परंस्त्री सेवन ।
१--विना परिश्रम किये झटपट धन उपार्जन करने के विचार से कौड़ियों ताश आदि के द्वारा शर्त लगाकर छूत नीड़ा करना जुआ खेलना है। जुमा समस्त व्यसनों का मूल है । जुए में जीतने बाला संगति के कारण वेश्यागमन, परस्त्री सेवन, मांस भक्षण, शराब पीने प्रादि का अभ्यासी बन जाता है। और जुआ में हारने वाला चोरी करना सीख जाता है । जुए के कारण श्रावस्ती के राजा सुकेत', राजा मल तथा पांख अगमा सरस्टा हा.. व... बाशा राष्ट्र होकर दीन, दरिद्र, असहाय बन गये ।
२--मांस भक्षण करने का अभ्यास मांस भक्षरण व्यसन है। दो इन्द्रिय आदि जीवों [जिनके शरीर में खून हड्डी होती है ] के शरीर का कलेवर मांस होता है जिसमें सदा स जीव उत्पन्न होते रहते हैं, अतः मांस खाने से बहुत हिंसा होती है। मांस भक्षण के व्यसन से प्राचीन काल में कुम्भ राजा की दुर्गति
३-अनेक पदार्थो को सड़ा कर उनका काढ़ा [अकं] निकाल कर मद्य {शराब ] तयार होती है, अतः उस में अस जीव उत्पन्न होते हैं। इस कारण शराब पीने से हिंसा भी होती है और बुद्धि नष्ट भ्रष्ट होती है । इसके सिवाय धर्म और शुद्ध प्राचार भी नष्ट भ्रष्ट हो जाता है । यादववंशी राज कुमारों ने द्वारिका के बाहरी कुण्डों में भरी हुई शराब पीकर ही नशे में द्वीपायन मुनि पर पत्थर फेके थे जिस से क्रुद्ध हो कर हीपायन ने अपनी अशुभ तेजस ऋद्धि द्वारा द्वारिका भस्म कर डाली।
वेश्या व्यभिचारिणी स्त्री होती है । जो कि बाजारू वस्तुओं की तरह अपने शील धर्म [ब्रह्मचर्य ] को सदा बेचती रहती है । सब तरह के ऊंच नीच, लुच्चे लफंगे द्रव्य देकर वेश्या. से काम-क्रीड़ा किया करते हैं, अतः वेश्यानों को