________________
片
( ११ )
उपदंश [ गर्मी, प्रतिशक] आदि रोग हो जाया करते हैं। इस तरह वेश्यागमन से धर्म, शुचिता ( पवित्रता) तथा धन नाश हो कर अनेक रोग प्राप्त होते हैं । प्राचीन समय में चारुदत्त सेठ ने वेश्या व्यसन द्वारा जो अपना सर्वस्व नाश किया था उसकी कथा प्रसिद्ध है ।
जलचर, थलचर, नभचर पशु पक्षियों को धनुष वारण, भाला, तलवार, बंदूक आदि से मारना शिकार खेलना है । यह एक महान निर्दय हिंसा का कार्य है जिससे नरक - प्रायु का बन्ध होता है । ब्रह्मदत्त चक्रवर्ती इस व्यसन के कारण नष्ट हुआ । यह बात इतिहास प्रसिद्ध है ।
धन गृहस्थ मनुष्य का बाहरी प्राण है इस कारण चोरी करने वाला मनुष्य दूसरे की चोरी करके बड़ी भारी भावहिंसा किया करता है। चोर का सारा जगत अपमान करता है । उसे राज-दंड मिलता है और पर भव में उस की दुर्गति हुआ करती है। विद्य ुदु वेग चोर की कथा प्रसिद्ध है तथा चोरी व्यसन से जो दुर्दशा मनुष्य की होती है, उसके उदाहरण प्रत्येक युग में प्रगति मिलते है ।
प्रत्येक मनुष्य अपनी पुत्री, बहिन, पत्नी, माता आदि पारिवारिक स्त्री का सदाचार [शील, ब्रह्मचर्य ] सुरक्षित रखना चाहता है । अन्य मनुष्य जब उनकी और काम दृष्टि से देखता है या उन से व्याभिचार करता है तब उसे श्रसह्य दुख होता है। जिसके प्रतिकार में बड़े बड़े युद्ध तक हो जाते हैं । सीता के अपहरण से रावण का सर्वस्व नाश हुआ । द्रोपदी के अपमान से कीचक तथा कौरव वंश का नाश हुआ ।
पहली दर्शन प्रतिमा का धारक दार्शनिक श्रावक सात व्यसनों का स्थाग कर देता है ।
शल्यत्रयम् ॥१३॥
शल्य के भेद हैं- १ - माया, २ - मिध्यात्व ३-निदान ।
३
nic, की, कांच प्रादि शरीर में चुभने वाली वस्तु को 'शल्य' कहते
हैं । जब तक शरीर में कोटा श्रादि चुभा रहता है तब तक शरीर में व्याकुलता बनी रहती है, जब कांटा कील या कांच शरीर से निकल जाता है तब शरीर मैं श्राकुलता नहीं रहती। इसी प्रकार बती का व्रत तभी स्वस्थ या यथार्थ भ्रत होता है जब कि उस के हृदय में कोई शल्य नहीं रहती ।
J
माया यानी छल कपट शल्य व्रती के व्रत को यथार्थ व्रत नहीं रहने देती, मायाचारी मनुष्य दूसरों को भ्रम में डालने के लिये अपना व्रती रूप बनाता है।