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उसके हृदय में प्रताचरण की भावना नहीं होती। जैसे कि एक चोर, सेठ जिनेन्द्र भक्त के चैत्यालय से छत्र में लगे हुए रत्न को चुराने के लिये मायावी क्षुल्लक धम कर चैत्यालय में उदर गया शा! और रात में से चुर' कर भागा था।
आत्मा का विपरीत श्रद्धान मिथ्यात्व है ।
सम्यक्त्व ( आत्मा की सच्ची श्रद्धा ) के साथ ही प्रत प्राधरण सच्चा होता है, भात्म-श्रद्धा के अभाव में, मिथ्यात्व रहते हुए अत यथार्थ नहीं होते। इस कारण मिथ्यात्व भी प्रताचरण के लिए शल्य है।
बत चारित्र प्रात्मा को कर्म-जाल से छुड़ाकर मुक्त होने के अभिप्राय से ग्रहण किया जाता है। ब्रती पुरुष के यदि सांसारिक विषय भोगों को प्राप्त करने की अभिलाषा रूप निदान बना रहे, तो ब्रत पारित्र का अभिप्राय ही गलत हो जाता है, अतः निदान भी व्रती पुरुष के लिए शल्य है।
जो व्यक्ति माया, मिथ्यात्व, निदानइन तीनों शल्य को दूर करके बत पालम करता है, यही सच्चा अती होता है । 'निःशल्यो वती' यह प्रती का लक्षण
अथ श्रावक के सूल गुणों को बतलाते हैं -
अष्टौ मूलगुणाः ॥१४॥ प्रर्थ श्रावक के पाठ मूल गुण हैं ।
जिस प्रकार भूल (जड़) के बिना वृक्ष नहीं ठहर सकता उसी प्रकार गृहस्थ धर्म के जो मूल (जड़ हैं, जिनके बिना श्रावक धर्म स्थिर तथा उन्नत नहीं हो सकता, वे मूलगुण ८ हैं। पांच उदुम्बर फलों का तथा ३ मकार (मद्य मांस, मधु) के भक्षण का त्याग । ये पाठ अभक्ष्य पदार्थों के त्याग रूप ८ मूल
पेड़ों पर पहले फुल पाते हैं फुल भड़ जाने पर उनके स्थान पर फल लगते हैं किन्तु बड (मरगद), पीपर, गूलर ऊमर (मजीर) और कठूमर ' वृक्षों के फल बिना फुल पाये ही उत्पन्न हो जाते हैं, इन पांचों फलों में पहत से त्रस जीव होते हैं, बहुतों में उड़ते हुए भी दिखाई देते हैं, इस कारण इन इन फलों के खाने से मौस भक्षण का दोष लगता है।
मद्य (शराब) मनुष्य के विवेक बुद्धि को मष्ट भ्रष्ट करने वाला मशीला पदार्थ है, इस के सिवाय उसमें बस जीव भी पाये जाते है, अतः मध दोनों तरह स्पॉश्य है।
'पालु धार्मिक गृहस्थ को मांस तो खाना ही नहीं चाहिए क्योंकि यह नस