________________
यानी-दर्शन, अत, सामायिक, प्रोषव, सचित्तविरक, रात्रि-भोजन-त्याग, ब्रह्मचर्य, प्रारम्भ त्याग, परिग्रह त्याग, अनुमति स्याग और उद्दिष्ट त्याग ये पांचवें गुणस्थान वाले की ११ प्रतिमाएं (श्रेणियां) हैं, इनका स्वरूप पीछे चरणानुयोग में लिख चुके हैं ।
धूलिकी रेखा के समान प्रत्याख्यानावरण क्रोध आदि का क्षयोपशम हो जाने पर जब महाव्रत का आचरण होता है किन्तु जल रेखाके समान क्रोधादि वाली संज्वलन कषाय तथा नोकषायों के उदय से चारित्र में मैल रूप प्रमाद भी होता रहता है, तब छठा प्रमत्त गुणस्थान होता है । ४ विकथा (स्त्रीकथा भोजन कथा, राष्ट्र कथा, अवनिपाल कथा ), चार कषाय [क्रोध मान माया लोभ], ५ इन्द्रिय तथा नींद और स्नेह ये १५ प्रमाद हैं ।
महाप्रती मुनि जब संज्वलन कषाय तथा नोकषाय के मंद उदय से प्रमाद रहित होकर प्रात्मनिमग्न ध्यानस्थ होता है तब अप्रमत्त नामक सातवां गुणस्थान होता है। इसके दो भेद हैं । १- स्वस्थान अप्रमत्त [ जो सातवें गुणस्थान में ही रहता है, ऊपर के गुणस्थानों में नहीं जाता, २-सातिशयजो ऊपर के गुणस्थानों से चढ़ता है !
अनन्तानुबन्ध गोध मान II लोग लियाम आरित्र बोहनीय कर्म की २१ प्रकृतियों के उपशम करने के लिए अथवा क्षय करने के लिए श्रेणी चढ़ते समय जो प्रथम शुक्लध्यान के कारण प्रतिसमय अपूर्व परिणाम होते हैं वह अपूर्वकरण नामक पाठवां गुणस्थान है।
अपूर्वकरण गुणस्थान में कुछ देर [ अन्तर्मुहूर्त ] ठहरकर अधिक विशुद्ध परिणामोंवाला नौवां अनिवृत्ति गुणस्थान होता है। इसमें समान समयवर्ती मुनियों के एक समान ही परिणाम होते हैं । इस गुरणस्थान में है नोकषायों का तथा अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान-प्रावरण कषाय सम्बन्धी क्रोध मान माया लोभ और संज्वलन क्रोध मान माया, इन २० चारित्र मोहनीय कर्म प्रकृतियों का उपशम था क्षय होकर केवल स्थूल संज्वलन लोभ रह जाता है। इस गुणस्थान का समय भी अन्तमुहर्त है।
तदनन्तर उससे अधिक विशुद्ध परिणामोंबाला सूक्ष्मसाम्पराय नामक १० वां गुणस्थान होता है, इसमें स्थूल संज्वलन लोभ सूक्ष्म हो जाता है।
उपशम श्रेणी चढ़ने वाले मुनि १०३ गुणस्थान में अन्तर्मुहूर्त रहकर तदनन्तर संज्वलन सूक्ष्म लोभ को भी उपशम करके ११वें गुणस्थान उपशान्त मोह में पहुंच जाते हैं। यहां पर उनके विशुद्ध यथास्यात चारित्र हो जाता है,