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राग द्वेष क्रोध यादि विकार नहीं रहते, बीतराग हो जाते हैं। परन्तु
मुहूर्त पीछे ही उपशम हुश्रा सूक्ष्म लोभ फिर उदय हो जाता है तब उपशांत मोहवाले मुनि उस ११ वें गुणस्थान से भ्रष्ट होकर क्रम से १० वें, हमें, वें आदि गुणस्थानों में आजाते हैं ।
जो मूर्ति क्षपक श्रेणी पर खड़ते हैं वे १० वें गुणस्थान से सूक्ष्म लोभ का भी क्षय करके क्षीणमोह नामक १२ गुणस्थान में पहुँच जाते हैं। वहां उन्हें वीतराग पद, विशुद्ध यथाख्यात चारित्र सदा के लिए प्राप्त हो जाता । उन्हें उस गुणस्थान से भ्रष्ट नहीं होना पड़ता ।
८वें से ११ वें गुणस्थान तक बाली उपशम श्रेणी तथा ८वें गुरास्थान से १२वें गुणस्थान तक [ ११ गुणस्थान के सिवाय ] क्षपकश्रेणी का काल अन्तर्मुहूर्त है और उन प्रत्येक गुणस्थान का काल भी समुहूर्त है ! तमुहूर्त के छोटे बड़े अनेक भेद होते हैं ।
दूसरे शुक्लध्यान एकत्ववितकें प्रवीचार के बल से १२ वें गुरंग स्थान वाला वीतराग मुनि जब ज्ञानावरण और दर्शनावरण अन्तराय कर्म का भी समूल क्षय कर देता है तब श्रनन्तज्ञान [ केबल ज्ञान ], अनन्तदर्शन, अनन्तवीर्य प्रगट होता है, वह सयोग केवली नामक तेरहवां गुणस्थान हैं। मोहनीय कर्म के नष्ट होने / से 'अनन्तसुख होता है। इस तरह केवली अर्हन्त भगवान श्रनन्त चतुष्टय- धारक सर्वश वीतराग होते हैं। उनके भाव मन योग नहीं रहता। कार्ययोग के कारण उनका विहार होता है और वचन योग के कारण उनका दिव्य उपदेश होता है । दोनों कार्य इच्छा बिना स्वयं होते हैं ।
श्रायु कर्म समाप्त होने से कुछ समय पहले जब योग का निरोध भी हो जाता है तब १४ वां प्रयोग केवली गुणस्थान होता है। अ इ उ ऋ लृ इन पांच ह्रस्व प्रक्षरों के उच्चारण में जितना समय लगता है उतना समय इस . गुणस्थान का काल है। इस गुणस्थान में शेष समस्त प्रघाति कर्मों का नाश 1. करके मुक्त हो जाते हैं ।
मुक्त हो जाने पर द्रव्यकर्म, भावकर्म, नोकर्म से रहित होकर सिद्ध अन्तिम शरीर से कुछ कम प्रकार [ अमूर्ति 1 में हो जाते हैं। और आरमा के समस्त गुण विकसित हो जाते हैं। तदनन्तर एक ही समय में ऊर्ध्वं गमन के लोक के भाग में पहुंचकर ठहर जाते हैं। फिर उनको जन्म मरण श्रादि नहीं होता । श्रनन्तकाल तक अपने परम विशुद्ध स्वाधीच सुखानुभव में निम्न रहते हैं ।