________________
(२.) आता है। उस पविकल्प ध्यान के समय यदि कोई परिषा पाजावे तो उस समय यदि वह अन्तरात्मा शारीरिक मोह को त्याग कर परिषह जन्य कष्ट को ओर से मानसिक वृत्ति हटाकर मन को प्रारमचिन्तन में निमग्न करदे तो वही निश्चय ध्यान हो जाता है।
अल्हा सिद्धा पाइरिया उवज्झाया साहु पंचपरमेट्ठी।
तेवि हु चेतइ प्रादे तम्हा प्रादाहु मे सररणं ॥ अर्थ-अर्हन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्वसाधु ये पांच परमेष्ठी का आत्मा में चिन्तवन करना चाहिये क्योंकि आत्मा ही मुझे शरण है।
अर्हन्त सिद्ध प्राचार्य उपाध्याय सर्व साधु निश्चय नय में शुद्ध चिद्र प में प्रवर्तन करने वाले हैं अतः हीनसंहनन, अल्पश्रतजानी, अल्प चारित्र वाले व्यक्तियों को भी अपने आत्मा को पंच परमेष्ठी रूप चिन्तायन करके ध्यान करना चाहिये।
भरहे पंचमकाले धम्मञ्झारणं ह्येइ णारिणस्स ।
ते अप्पसहावठिदे राह मण्णइ सोवि अण्णाणी । अर्थ-भरतक्षेत्र में इस पंचम कलिकाल में ज्ञानी के स्वात्म-स्थित हो जाने पर धर्म ध्यान होता है, ऐसा जो नहीं मानता है वह अज्ञानी है।
अंजलितिय रणसुद्धा प्रापज्झाऊरण ।। प्रह्इ इछुत्तं तत्थ चुदा रिगवुदि जंति ॥ प्रार्तध्यानं निषेधन्ति शुक्लध्यानं जिनोत्तमाः । धर्मध्यानं पुनः प्राहुः श्रेरिणभ्यां प्रावर्तिनाम् ।। यत्पुनर्बज्रकायस्य ध्यानमित्यागमेन च । श्रेयोनिं प्रतीत्युक्तं तन्नावस्थां निषेधकम ॥ यत्राहुनहि कालोऽयां ध्यानस्वाध्याययोरिति ।
अहन्मतानभिज्ञत्वं ज्ञापयन्त्यात्मनः स्वयम् ॥ अर्थ:-रत्नत्रय से युद्ध व्यक्ति प्रात्मा का ध्यान नाक इन्द्रपद प्राप्त करते हैं फिर वहां से आकर मनुष्य भव पाकर मुक्ति प्राप्त करते हैं । जिनेन्द्र भगवान ने उपशम या क्षपक श्रेणी से पूर्ववर्ती मनुष्यों के धर्मध्यान बतलाया है, उनके प्रार्तध्यान और शुक्लध्यान का निषेध किया है। प्रागम में बतलाया गया है कि बज्र ऋषभनाराच संहनन वाले के उपशम श्रेणी, क्षपक श्रेणी शुक्लध्यान होता है । जो मनुष्य यह कहते हैं कि यह काल ध्यान और स्वाध्याय के योग्य नहीं है वह अपने आपको जैन सिद्धान्त को अनभिज्ञता प्रकट करते हैं।