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(२४) व्यवहार और निश्चय मोक्षमार्ग का कारण ज्ञान से ही प्राप्त होता है:
स चमुक्ति हेतू दिव्यध्याने यस्माद्व्याप्यते विविधोऽपि । तस्मादयस्यन्तु ध्यानं सुधियो सदाप्यपालस्यम् ॥ घनसंहननोपेताः पूर्वश्रुतसमन्विताः। दद्यः शुक्लमिहातीताः श्रेण्युपारोहरणक्षमाः ॥ ४१-४२ ।। ताहक सामग्र यभावे तु ध्यातु शुक्लमिहाक्षमान ।
धरायुगेनानुद्दिश्य धर्मध्यानं प्रचक्ष्महे ॥ ३४ ॥ अर्थ-धर्मध्यान और शुक्ल ध्यान निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के कारण हैं इसलिये बुद्धिमान पुरुष उन ध्यानों का अभ्यास करें । जो मुनि बज ऋषभनाराच संहनन-धारक हैं, पूर्ण श्रुतज्ञानी हैं वे ही उपशम तथा क्षपक श्रेणी पर चढ़ने में समर्थ हैं और वे ही शक्ल ध्यान कर सकते हैं। इस समय भरत क्षेत्र में उस प्रकार के संहनन आदि साधन सामग्री के न होने से मुनिगण शुक्ल ध्यान करने में असमर्थ हैं उनके उद्देश्य से धर्मध्यान को कहेंगे। गाथा- जाणिमिसयुविकाइयिणियअप्पेमणुवाऊ।
अग्गिकरणज्जेवकट्ठगिरिदहसेसुविहाऊ ॥ १२ ॥ अर्थ-तृण काष्ठ पुज को अग्नि की केवल एक छोटी सी चिनगारी भी जिस प्रकार क्षणभर में भस्म कर देती है उसी प्रकार बीतराग निर्विकल्प स्वसंवेदन ज्ञान भावना के बल से निज शुद्धात्मा को निमिषार्थ समय में, ( क्षण भर में ) ही एकाग्रता से ध्यान करने से अनन्त भवों के एकत्रित किये हुये सकल कर्म मल नष्ट हो जाते हैं । इस पंचम काल के इस क्षेत्र में मोक्ष न होने पर भी परम्परा से मोक्ष होती है, ऐसा विश्वास रखकर निजात्म भावना करनी चाहिये । प्राचीन काल में भी भरत, सगर, राम तथा पांडवादिकों ने जिस प्रकार परमात्मभावना से मंसार की स्थिति का नाश करके स्वर्ग पद प्राप्त किया था
और वहां के सुखों का अनुभव करके अन्त में चयकर इस भरत क्षेत्र में प्रार्यखण्डस्थ कर्म भूमि में पाकर जन्म लिया तथा पूर्व भव में भेदाभेद रत्नत्रय भावना संस्कार बल से मुनिदीक्षा ग्रहण करने पुनः शुद्धात्म भावना को भाकर पाने, वाले अनेक उपसर्गों को जीत कर मोक्ष सुख को प्राप्त किया । ऐसा समझकर भव्य जीवों को सदा अभ्युदयकारक शुद्धात्म--भावना को निरन्तर करते रहना चाहिये।
विषय कषाय प्रादि अशुभ परिणामों को दूर करने के लिये पंच परमेष्ठी प्राधि को ध्येय बनाकर प्रशस्त परिणाम करने के लिये सविकल्प ध्यान किया