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( २६% ) से निर्मल निज-यात्मभावना का अनुष्ठान करना उत्तम तप है, उसमें सदा विचरण करना निश्चय तपाचार है । हग प्रकार चार प्राराक्षनाओं को अपनी शक्ति न छिपाकर प्राचरण करना वीर्याचार है । इन पंच प्राचारों में अग्रेसर होकर व्यावहारिक पंच प्राचारों से युक्त शुद्ध रत्नत्रयात्मक कारण समय सार के बल से अनन्त निश्चय मोक्ष मार्ग के चतुष्टयात्मक कार्य रामयसार को वीतराग निर्विकल्प समाधि में लीन होकर साधन करने वाले सर्व साधु परमेष्ठी हैं उनका निर्मल भक्ति से स्मरण करने वाले भब्यजीवों को उनका स्मरण निज शुद्ध रत्नत्रयात्मक मोक्षमार्ग का सहकारी कारण है, ऐसा समझकर निम्नलिखित रूप से ध्यान करना चाहिये।
प्रखण्डशुद्ध ज्ञानकस्वरूपोहं,स्वाभाविकज्ञानदर्शनस्वरूपोहं अन्तरंग रत्नत्रयस्वरूपोह, नयनिक्षेपप्रमाणविदूरस्वरूपोहं,सप्तभयविप्रमुक्तस्वरूपोहं अष्टविध कर्म निर्मुक्त स्वरूपोह, अविचलशुद्धचिदानन्दस्वरूपोह, अवतपरमाल्हादस्वरूपोहं, इत्यादि सबिकल्प गुणस्मरण से स्वशुद्ध आत्म स्वरूप में निश्चल अवस्थान होता है ऐसा समझ कर सर्व साधु पद की प्राप्ति के लिये स्वशुद्ध मात्मभावना विवेकी पुरुषों को सदा करते रहना चाहिये, ऐसा श्री कुमुदचन्द्र प्राचार्य का अभिप्राय है।
___ अब पांच परमेष्ठियों का स्वरूप कहते हैंसिद्ध भगवान साक्षात् परमेष्ठी ( परम पद में स्थित ) हैं । अर्हन्त भगवान एक देश परमेष्ठी हैं। प्राचार्य, उपाध्याय, सर्वसाधु को भी उस पद के साधन में तत्पर रहने के लिये तथा दुर्ध्यान दूर करने के लिये व्यवहार निश्चय, मेद अभेद ध्यान-सम्बन्धी पंचपरमेष्ठी की भक्ति प्रादि बहिरंग धर्मध्यान के बल से निश्चय धर्मध्यान की आराधना करते हैं । कहा भी है
वैराग्यं तत्त्वविज्ञानं नैन्थ्यं पश्यचित्तता। जितपरिषहत्वं च पंचते ध्यानहेतयः ॥ निमित्तं शरणं पंच गुरवो गौरगमुख्यता ।
शरण्यं शरणं स्वस्य स्वयं रत्नत्रयात्मकम ॥ ३९-४० ॥ अर्थ---बैराग्य,तात्त्विक ज्ञान, निर्गन्यता ( बाह्य आभ्यन्तर परिग्रह रहित- . पना, मनको वश में करना तथा परिषहों का जीतना, ये पांच ध्यान के कारण हैं, व्यवहार से पांच परमेष्ठी निमित्तभूत शरण ( रक्षक ) हैं किन्तु निश्चय नय से स्वयं रत्नत्रयमय अपना आत्मा ही शरण है.