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( २५७ ) के निकट जाकर विनय करना अथवा उनकी कुशलता पूछकर ययायोग्य सेवा करना ये शब्द विनय हैं।
मन वचन काय से सुशील योग्यता धर्मानुराग की कथा श्रवण करना तथा अहंदादि में प्रमाद व मानसिक दोषों को छोड़कर भक्ति करना गुरु वृक्ष सेवाभिलाषा आदि से सेवा करना या गुरु के वचन सर्वथा सत्य है यह विश्वास करके मन में कभी हीनता का भाव न लाना, कुल आदि धनेश्वर्य, रूप, जाति बल, लाभ वृद्धि आदि का अपमान न करना सदा सभी जीवों के साथ क्षमाभाव को रखकर मैत्रीपूर्ण विश्वास रखकर देशकालानुकूल हितमित वचन बोलना सेव्य, प्रसेव्य भाव्य अभव्यादि विवेकों का विचार पहले अपने मन में कर लेने के बाद प्रत्यक्ष प्रमाणित करना प्रत्यक्ष उपचार विनय है । प्राचार्य व मुनिवगैरह यदि पास न हों तो भी अपने हृदय में भक्ति रखना व नमस्कार करना यदि कदाचित् भूल भी जाएँ तो भी पश्चात्ताप करना आदि प्रोक्षविनय
इस भब और परभव के प्रति सांसारिक सुख की अपेक्षा न रखना
अक्षय अनन्त मोक्ष यल की इच्छा करके ज्ञान लाभ व चरित्र की विशुद्धि से सम्यगाराधना की सिद्धि के लिए जो विनय करता है वह शीघ्र स्वात्मोपलब्धि लक्षण रूपी मोक्ष मार्ग (द्वार) में पड़े हुए अर्गल को तोड़कर मोक्ष महल में प्रवेश करता है।
दशविधानि वैयावृत्यानि ॥५०॥
यदि किसी मुणवान धर्मात्मा पुरुष को कदाचित् शरीर पीड़ा हो य दुष्परिणाम हों, तो उनकी वैयावृत्य (सेवा) करना धर्मोपदेश देकर सन्मार्ग : स्थिर करना तथा धर्म चर्चा सुनाना प्रादि वैयावृत्य कहलाता है। इस प्रकार ययावृत्य के १० भेद हैं।
(१) प्राचार्य की वैयावृत्य, (२) उपाध्याय की वैयावृत्य, [३] कवल चान्द्रायण आदि व्रतों के धारण करने से जिनका शरीर अत्यन्त कृश हो गय है उन तपस्वी मुनि की वयावृत्य करना [४] ऋतु ज्ञान शिक्षा तथा चारित शिक्षा में तत्पर शिष्य रूप मुनियों की वैयावृत्य करना, [५] विविध भानि के रोगों से पीड़ित मुनियों की चैयावृत्य करना, [६] वृद्ध मुनियों की शिष परम्परा [गरा] मुनि जनों की वैयावृत्य करना, [७] प्राचार्य की शिष परम्परा रूप मुनियों [कुल] की वैयावृत्य करना, [८] चातुर्वर्ण्य संघ व वैयावृत्य करना, [६] नव दीक्षित साधुओं की वैयावृत्य करना तथा {१०