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श्राचार्यादि में समशील मनोश मुनियों की वैयावृत्य करना १० प्रकार का वैयावृत्य कहलाता है ।
पंचविध स्वाध्यायः ॥ ५१ ॥
श्र द्रव्य शुद्धि, क्षेत्र शुद्धि, काल शुद्धि तथा भावशुद्धि के साथ शास्त्र श्री श्रुतज्ञानी मुनियों की विनय करना स्वाध्याय है। बांचना, पृच्छना, अनुप्रेक्षा, आम्नाय और धर्मोपदेश ये स्वाध्याय के पांच भेद हैं। करुणाभाव से दूसरे को पढ़ाना बांचना है। अपने ज्ञान का अभिमान न करके शंका निवारण के लिए अधिक ज्ञानी से प्रश्न करना शंका समाधान करना कोई बात पूछना पुच्छना है ।
पढ़े हुए विषयों को बारम्बार चिन्तन-मनन करना श्रनुप्रक्षा है । पद अक्षर मात्रा व्यञ्जनादि में न्यूनाधिक न करके जैसे का वैसा पढ़ना, पाठ करना आम्नाय है । भव्य जीवों के हृदयस्थ अन्धकार को दूर करने के लिए जो उपदेश दिया जाता है वह धर्मोपदेश कहलाता है ।
द्विविधो व्युत्सर्गः ॥ ५२ ॥
बाह्य और ग्राभ्यन्तर भेद से व्युत्सर्ग दो प्रकार का है। बाह्य उपाधिक्षेत्र घर गाय, भैंस, दासी, दास, सोना, चांदी, यान, शयनासन, कुप्य, भांड आदि १० प्रकार के हैं। इनका त्याग करना बाह्य व्युत्सर्ग है ।
अन्तरंग उपाधि — मिथ्यात्व वेदराग, द्वेष, हास्य, रति, रति, भय, शोक, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया तथा लोभ ये १४ श्राभ्यन्तर उपाधि है । इनका त्याग करना ग्राभ्यन्तर व्युत्सर्ग हैं। व्युत्सर्ग के दो भेद हैं। उसमें जो जीवन पर्यन्त का त्याग है वह भक्त प्रत्याख्यानादि मरण के भेद से अनियत व्युत्सर्ग है । कुछ दिनों का नियम लेकर परिग्रह का त्याग करना नियत काल व्युत्सर्गं है और श्रावश्यकादि नित्य क्रिया, पर्वक्रिया व निषद्यादि क्रिया नैमित्तिक क्रियायें हैं ।
इसके आगे व बाह्य क्रिया काण्ड को कहते हैं:-- ( कौनसी भक्ति कहां करनी चाहिए)
कार्य
जिनप्रतिमावन्दन
आचार्य वन्दना [ गवासन रो | सिद्धांतवेत्ता आचार्य की वन्दना – सिद्ध, श्रत आचार्य भक्ति साधारण मुनियों की वन्दना -- सिद्ध भक्ति
भक्ति
चैत्यभक्ति पंचगुरु भक्ति लघु सिद्धभक्ति लघुआचार्य भक्ति
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