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(३) फरके उसका डाल दिया जाय तो तुरन्त ही पिंड बन जाता है। ऐसी इस . पृथ्वी की महिमा है।
अब उन भूमियों में कौन उत्पन्न होते हैं, सो बताते हैं, ऐसी कुत्सित योनि में जन्म लेने वाले जीव वे होते हैं जोकि भगवान् वीतराग का कहा हुआ जो समीचीन मार्ग जैन धर्म है उसपर श्रद्धान न रखने वाले हों, उसको न मानने वाले तथा उनके अनुयायी से क्लेश परिणामो, मिथ्या वाद करने वाले, मद्य मांस मधु का सेवन करने वाले, अपने कुल देवता की आराधना का बहाना करके पशु बलि देने वाले, पर नारी सेवनेवाले, दुर्ध्यान दुर्लेश्या से मरने वाले, वहां से अपने पाप कर्म के अनुसार मरकर पहिले दरक से हातवें नरक तक जाकर जन्म लेते हैं।
अन्तर्मुहूं त काल में ही षट्पर्याप्ति सहित पूर्णावयव वाले होकर उत्पन्न होते हैं । उसी समय में उनके सम्पूर्ण शरीर को हजारों बिच्छू एकत्र होकर काटने सरीखी वेदना होती है अथवा उनके शरीर में ऐसी वेदना निरंतर होती रहती है जो यहाँ पर हालाहल विष खाने से भी नहीं होती । नारकी लोग जन्म लेते ही जब अपने बिल में से नीचे जमीन पर पड़ते हैं तब ऊपर से वन शिला पर पड़ने वाले पक्व कटहल के फल के समान उनके शरीर के टुकड़े टुकड़े हो जाते हैं। फिर पारे के समान वापिस मिलकर जब वह नारकी खड़ा होता है तथा गुस्से में लाल प्रांखें करके जब सामने देखता है तो पुराने नारको को प्राता हुआ देखकर और भी भयभीत होता है। उसी समय अपने आप को तथा औरों को भी सन्ताप देने वाला विभङ्ग ज्ञान उसे पैदा हो जाता है। उत्पन्न होने वाले पुराने नारकी को देख कर भयभीत होकर अपने को और दूसरे को अत्यंत संताप को उत्पन्न करने वाले विभंग ज्ञान से जानता है:--
जिनधर्मके दयारसाधिगे वृथाविषममाळ पम् । निनदुर्भावदिनाव पापदफलं निष्कारण द्वषत् ॥ विनमं मारककोटियोळपडेबुद नायिनायिगळोळयोपाळ । मुनिदोवरनोर्थरेदिक्कडिखंड माडुतं दण्डिपर् ॥१॥ इरिदिनु सवियेनुतं । सविनोळ पं पळवुतेरद मृगदडगविवायुषु । सविपळे नुतवनन । यवंगळ कोयदु इडुवरवनाननदोळ ॥१॥ मोरेयळिव मद्यपावन । 'नेरेनेदं मधुवनटिट् तलेयोळ तलियि ॥