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________________ (१) ५ अरिष्टा मैं ३ लाख विल हैं। ६ मघवी में ५ कम १ लाख विल हैं । ७ माघवी में केवल ५ विल हैं। यह सब मिलकर चौरासी लाख (८४०००००) विल होते हैं । श्लोक कानड़ी भाषा में--- मूवत्तिपत्तव, तावगपदिनदुपत्तमूरयदूनं । भाविीडबुलक्षगळे, पेनुबळिकमयदुनरक विलंगळ् ॥ अर्थात् उपर्युक्त सभी बिल (८४०००००) होते हैं। इन्द्रक संख्यात योजन विस्तार वाले और श्रेणीबद्ध असंख्यात योजन विस्तार वाले होते हैं । प्रकीर्णकों में कोई संख्यात योजन, और कोई असंख्यात योजन वाले विल होते हैं। अब चार प्रकार के दुख के सम्बन्ध में सूत्र कहते हैं। चतुर्विधदुःखमिति ॥७॥ सहज, शारीरिक, मानसिक, आगन्तुक यह चार प्रकार के दुख होते हैं । शारीराज्वरकुष्टाद्या क्रोधाद्या मानसास्मृताः । प्रागन्तवो भिधातोत्थाः सहजा क्षुत्त षावयाः ॥ अर्थात् क्षेत्रज, असातोदयज शरीरज, मानसिक, परस्परोदीरित और दनुजों के द्वारा होने वाले अनेक प्रकार के दुखों से रात और दिन यह जीव वहां दुख पाता है। इस जीव को नरकों में एक क्षण मात्र भी सम्यक्त्व ग्रहणकाल को छोड़कर बाकी समय में सुख लेश मात्र भी नहीं मिलता। अर्थात् सम्यक्त्व बिना इस संसार में सुख नहीं। तीसरे नरक से आगे असुर कुमार के द्वारा किया हुआ दुख नहीं है। क्योंकि देव लोग आगे नहीं जाते हैं 1 रत्न प्रभा से धूमप्रभा के तीन भाग तक होने वाले (२२५०००) बिलों में से मेरु पर्वत के समान लोहे के गोले को यदि बनाकर डाल दिया जाय तो उसी समय पिघल कर पानी हो जाता है, इतनी गर्मी है। ___ और वहां से नीचे १७५००० और विल हैं । वे इतने ठंडे होते है कि अगर ऊपर कहा हुआ मेरु पर्वत के समान पिंड को गला कर पानी
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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