________________
(४ ) अंगोपांग ) एक साथ (एक काल में) नहीं होते। सासादन में तीर्थंकर प्रकृति की सत्ता नहीं।
चत्तारि वि खेत्ताई अगुगबंधेरा होय सम्पत्तं ।
प्रएवरमहव्वदाई लहइ देवाउगं मोत्तु ।। - अर्थ-पागें आयुओं में से किसी भी प्रायु का बंध हो जाने के पश्चात् सम्यक्त्व हो सकता है, परन्तु प्रणुव्रत महानत का घारण देवायु का बन्ध करने वाले के ही होता है । अन्य किसी प्रायुवा बन्ध कर लेने वाले के नहीं होता।
शिरयतिरक्खसुराउग सत्ते एहि दसमयलवदखवगा । • प्रयदचक्कंतु अणं परिणयट्ठी करणबहुभागं !!
जुगवं संजोगित्ता पुरणोखि परिणयट्टिकरणबहुभागं । घोलिय कमसो मिच्छ मिस्सं सम्भं खेरि कमे ॥
पर्थ--नरक पायु को सत्तामें देशवत, तियेच पा की सत्ता में महावत पोर देवायु को सत्ता में क्षपकवणी नहीं होती। अनंतानुमन्धो क्रोचमान पापा लोभ का विसंयोजन 1 अप्रत्याख्याननावरण प्रादि रूप करना ) चौपे से सातवें गुणस्थान में से कहीं भी अनिवृत्ति कर परिणाम के अन्त में कर देता है। फिर मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक् प्रकृतिका क्षय करता है।
सेल? किदधक्क चदुसेक्कं बादरे प्रदोएक्कं । खोणे सोलसङ जोगे वायत्तरि तेरुवत्तते। गिरयतिरिक्खदु वियलं धीरगतिगुज्जोनतावएइंद्री । साहमणहमथम्बर सोल मज्भूिम कसायट्ठ॥
संढिस्थिधक्कसाया पुरिसो कोहोय मारण मायं च । .. पूले सुहभे लोहो उदयं वाहोदि खोरिएहि ॥
अर्थ-निवृत्तिकरण गुणस्थान के पहले भाग में नरकगति, नरकगस्यानपूर्वी, तिर्यंचगति, तिथंचगत्यानुपूर्वी, ३ विकलेन्द्रिय, निद्रा निद्रा, प्रचला प्रचला, स्त्यानगृद्धि, उद्योत, पातप, एकेन्द्रिय, साधारण, सुक्ष्म, स्थावर इन १६ प्रकृतियों को सत्वन्युनिहात्ति होतो है । दूसरे भाग में प्रत्याख्यान की ४, प्रत्यास्यान को ४ ये ८ प्रकृतियां, तीसरे भाग में नपुसक वेद, चौथे भाग में स्त्री वेद, पांचवें भाग में हास्य श्रादि ६ नो कषाय, छठे में पुरुष वेद, सातवें में संज्वलन क्रोध, प्रांठवें में मान, नौवें में माया की ( कुल ३६ प्रकृतियों को) सरकन्युच्छित्ति होती है। दशवें गुपस्थान में संज्वलन लोभ की व्युग्छिति