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(a) स्वरूपोऽहं, निरामयस्वरूपोऽहं, निरायुष्कस्वरूपोऽहं, निरामुधस्वरूपोऽहं, निर्नाम स्वरूपोऽहं, निर्गोत्रस्वरूपोऽहं, निविघ्नस्वरूपोऽहं निर्गति स्वरूपोऽहं, निरिन्द्रियस्वरूपोऽह, निष्कायस्वरूपोऽहं, निर्योगस्वरूपोऽहं, निजशुद्धस्मरणनिश्चयशुद्धोऽहं, परंज्योतिःस्वरूपोऽह, निरंजनस्वरूपोऽह, चिन्मयस्वरूपोऽहं, ज्ञानानन्दस्वरूपोऽहं" इत्यादि निजशुद्धात्म गुणस्वरूप निश्चय सिद्धभक्ति है अर्थात् चित्स्वरूप में जो अविचल निर्विकल्प स्थान है यह निश्चय सिद्ध भक्ति कहलातो है । इस प्रकार सबिकल्प निर्विकल्पस्वरूप भेदाभेद सिद्ध भक्ति की भावना के बल से विविध प्रकार के रोम्य सुखादिहिक माह संपनि नथा अन्त में नि:शेयस सुख की प्राप्ति होती है ।
चरम शरीर की अपेक्षा धीतराग निर्विकल्प निम्नय सिद्ध-भक्तिपूर्वक रूपातीत ध्यान उसी भव में कर्म क्षय करने वाला है, ऐसा समझकर निज परमात्मा की आराधना निरन्तर करनी चाहिये, ऐसा श्री योगीन्द्रदेव का अभिप्राय है।
रूपातीत ध्यान के सिबाय शेष तोन ध्यानों के विषयभूत श्री आचार्य परमेष्ठी का स्वरूप बतलाते हैं--
निश्चय तथा व्यवहार नय से दर्शनाचार ज्ञानाचार, चारिवाचार, तपा चार और वीर्याचार, इन पांच प्राचारों का आचरण करने वाले, परमदयारसपरिणति से द्रव्य क्षेत्र काल भव भावरूप संमार सागर को पार करने के कारण रूप तथा पवित्र पात्ररूप, निज निरंजन चित्स्वभावप्रिय भव्यजीजों को पांच प्राचारों का आचरण कराने वाले, चातुर्वर्ण्य संघ के नायक ऐसे आचार्य परमेष्ठी को गुणानुगग से स्मरण करने वाले भव्य जीवों को भाव शुद्धि होती है, ऐसा समझ कर निम्नलिखित रूप से ध्यान करना चाहिये
"त्यवहारनिश्चियपंचाचारपरमदयारसपरिणतिपंचप्रकारसागरोतरसकारणभूत पोतपात्ररूपनिनिरन्जन - चित्स्वरूप - भावना - प्रियचातुर्वर्य-संधनायकाचार्य - परमेष्ठि - स्वरूपोऽहं, निजनित्यानन्दैकतत्वभावस्थरूपोहं, सकलविमलकेवलज्ञानदर्शनस्वरूपोहं, दण्डभयखण्डिताखण्डचित्पिण्डस्वरूपोई, चतुर्गतिसंसार-दुःस्वरूपोह, निश्चय-पंचाचार-स्वरूपोहं, भूतार्थषडावश्यकस्वरूपोहं, सप्तभय - विप्रमुक्त - स्वरूपोलं, विशिष्टाष्टगुस्सप्रष्टस्वरूपोह, नक्केवलब्धिस्वरूपोहं, अष्टविधकर्म मलकलकरहितस्वरूपोहं, सप्तनयम्यतिरिक्तस्वरूपोहं, इत्यादि रूप से प्राचार्य परमेष्ठी का ध्यान करना महंविकल्प निश्चय भावना है।