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दो शब्द संसारसागर में आत्मा को डुबाने वाला प्रज्ञान (मान की कमी) तथा कुज्ञान [मिथ्याज्ञान] है और संसार से पार करने वाला सज्ज्ञान है। वैसे तो मनुष्य पढ़ लिखकर लौकिक ज्ञान में बहुत निपुण हो जाते हैं जैसे कि आपकल भौतिक विज्ञान में पाश्चात्य देशों के विज्ञानवेत्ता अणुबम उद्जनबम.आदि बना कर बहुत कुछ उन्नति कर चुके हैं किन्तु उस सूक्ष्म विशाल ज्ञान से मात्मा को कुछ पोषण नहीं मिलता। वह महान ज्ञान तो हिरोशिमा, मागासीका जैसे जापान के विशाल नगरों को क्षणभर में विध्वंस करने में निमित्तकारण बन गया है। प्राध्यात्मिक ज्ञान ही प्रात्मकल्याण का साधन है।
सततस्मरणीय पूज्यतम तीर्थंकरों ने उसी आध्यात्मिक ज्ञान का प्रचार किया यद्यपि उन्होंने परमाणु आदि जड़ पदार्थों का सूक्ष्म विवेचन भी अपने दिव्य उपदेश में स्पष्ट किया है परन्तु उनका संकेत मुख्यरूप से आध्यात्मिक ज्ञान की ओर रहा । उसी आध्यात्मिक ज्ञान को अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर की शिष्य परम्परा ने प्रथनिबद्ध करके जगत्कल्याण के लिए सुरक्षित रखा। उन्होंने भगवान महावीर की वाणी को चार अनुयोगों में विभक्त करके भिन्नभिन्न अनुयोगों की अक्षरात्मक रचना की। परन्तु श्री माघनन्दि आचार्य ने सूत्रात्मक शास्त्रसार समुच्चय ग्रन्थ में उन चारों अनुयोगों को संक्षेप में रखकर अनुपम रचना संसार के सामने रक्खी।
उसी शास्त्रसार समुच्चय नन्थ की टीका श्री मारिणश्यनन्दि आचार्य ले की है जोकि संभवतः संस्कृत भाषा में होगी। एक कानड़ी टीका किसी अज्ञातनामा विद्वान ने की है जोकि अच्छी सुगम एवं उपयोगी है। उसकी उपयोगिता अनुभव करके हमने उसका हिन्दी अनुवाद कर दिया है। ग्रन्थ की अन्य मूल लिखित प्रति न मिल सकने से मन्थ का मिलान न किया जा सका, प्रतः अनेक गाथाओं एवं श्लोकों की अशुद्धियों का ठीक संशोधन होने से रह गया है ।
ग्रन्थ के प्रकाशन के लिए श्रीमति जैन धर्मपत्नी श्री राजेन्द्र कुमार जी जैन ११-कीलिंग रोड न्यू देहली ने आर्थिक व्यय करके सज्ज्ञान के प्रसार में सहयोग दिया है उनका यह प्रार्थिक दान उनके मुक्ति के कारणभूत पुण्यानुबंधका कारण है। धनका सदुपयोग विश्वकल्याण के कारणभूत सत्कार्यों में व्यय करना ही है । श्रीमति जैन की यह उदारभावना और भी प्रगति करे और