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________________ (२) अपमत्ते सम्मत्तं प्रतिमतिय संहदोऽपुयम्हि । छच्चेवणोकसाया प्रषियट्टी भागभागेसु ॥७१॥ मर्थ सातवें गुणस्थान में सम्यक प्रकृति तथा अद्धं नाराच कोलका अस प्राप्ता सपाटिका सहनन ये ४ प्रकृतियां उदय युच्छित होती हैं। पार्व करण में तीन वेदों के सिवाय हास्य प्रादि ६ नोकषायों की युग्छित्ति होती है। वेदतिय कोहमाणमाया संजलणमेव सुहुमंते । सुहुमोलोहोसते वज्जनारायणारामं ॥१॥ पानी–नौवें गुणस्थान के सवेद भागों में स्त्री पुरुष नपुंसक वेद सथा प्रवेद भाग में संज्वलन क्रोध मान माया की व्युच्छित्ति होती है। सूक्ष्म साम्पराय के अंत में संज्वलन की तथा हमें गुस्सा में बनमाराम पौर नाराच सहनन की उदय व्युच्छित्ति होती है। क्षोएकसायचारमेणिछापयलाम उदयवोच्छिण्ण । गाांतरायव सयं दंसपचलारि चरिमम्हि ॥७२॥ अर्थ-क्षीणकषाय के अंतिम समय से एक समय पहले निद्रा मोर प्रचला तथा अंतिम समय में ज्ञानावरण को ५ दर्शनावरण की ४ एवं अन्तराय की ५ कुल १४+२-१६ प्रकृत्तियों की व्युच्छित्ति होती है। तरियेवक वज्जणिमिणं थिरसृहसवगविउरालते जदुगं । सठाणकरणागुरुच उक्क पत्तेय जाणिम्मि ॥७३॥ अर्थ-सयोग केवली गुणस्थान में साता या असाता, बच ऋभ नाराच संहनन, निर्माण, स्थिर, अस्थिर, शुभ अशुभ सुस्पर, दुःस्वर, प्रशस्त, अप्रशस्त, विहायोगति, प्रौदारिक शरीर प्रौदारिक अगोपाग तंजस कार्माण छहों संस्थान, वरणं, रस, गन्ध, स्पर्श, अगुरुलघु आदि चार ओर प्रत्येक शरीर ये ३० प्रकृतियां व्युच्छिन्न होती हैं। तदियेक्कं मणुबगदो पंचिदियसुभगतसतिगादेज्ज । जसतित्यं मणुवाऊ उच्च च अजोगवरिमम्हि ।।७४॥ अर्थ-प्रयोग केवलो गुणस्थान के अन्त में साता या असाता मनुष्य गति, पंरेन्द्रिय जाति, सुभग, त्रत प्रादि ३ आदेव, यशकोति, तीर्थंकर प्रकृति मनुष्य प्रायु, ऊच गोत्र इन १२ प्रकृतियों को उदय ब्युच्छित्ति होती है । .
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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