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प्रभाव को तथा साधन के सद्भाव में साध्य के सद्भाव को व्याप्ति कहते हैं । जैसे, 'अग्नि के न होने पर घुमां नहीं होता और मां के होने पर अग्नि अवश्य होती है' यह व्याप्ति है और इसको जाननेवाले ज्ञान को तर्क प्रमारण कहते हैं । और जिस बात को सिद्ध किया जाता है उसे साध्य कहते हैं और जिसके द्वारा सिद्ध किया जाता है उसे साधन कहते हैं । साधन से साध्य के ज्ञान को अभिनिवोध कहते हैं । इसका दूसरा नाम अनुमान है। जैसे कहीं धुमां उठता देखकर यह जान लेना कि वहां भाग है, क्योंकि वहां मां उठ रहा है, यह अभिनिबोध है । ये सब ज्ञान परोक्ष प्रमाण हैं ।
वह मतिज्ञान पाँचों इन्द्रियों और प्रनिन्द्रिय ( मन ) की सहायता से होता है ।
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आगे मतिज्ञान के भेद बतलाते हैं - अवग्रह, ईहा, प्रवाच और धारणा ये चार मतिज्ञान के भेद है। इन्द्रिय और पदार्थ का सम्बन्ध होते हो जो सामान्य ग्रहण होता है उसे दर्शन कहते हैं । दर्शन के अनन्तर ही जो पदार्थ का ग्रहण होता है वह अवग्रह है । जैसे चक्षु से सफेद रूप को जानना श्रवग्रह है । अवग्रह से जाने हुए पदार्थ में विशेष जानने की इच्छा होना ईहा है । जैसे यह सफेद रूप वाली वस्तु क्या है ? यह तो बगुलों की पंक्ति सी प्रतीत होती है, यह ईहा है । विशेष चिन्हों के द्वारा यथार्थ वस्तु का निर्णय कर लेना वाय है । जैसे, पखों के हिलाने से तथा ऊपर नीचे होने से यह निर्णय करलेना कि यह बगुलों की पंक्ति ही है, यह अवाय है । अवाय से जानी हुई वस्तु को कालान्तर में भी नहीं भूलना धारणा है ।
आगे इन अवग्रह आदि ज्ञानों के और भेद बतलाने के लिए उनके विषय बतलाते हैं:
बहु, बहुविध, क्षित्र, श्रनिःसूत, अनुक्त, ध्रुव, और इनके प्रतिपक्षी अल्प, अपविध, अक्षि, निःसृत, उक्त अध्र ुव, इन १२ पदार्थो का मतिज्ञान होते है । अथवा अवग्रह आदिसे इन बारहों का ज्ञान होता है । बहुत वस्तुओं के ग्रहण करने को बहुज्ञान कहते हैं । जैसे सेना या वनको एक समूह रूप में जानना बहुज्ञान है । और हाथी घोड़े आदि या ग्राम महुआ आदि अनेक भेदों को जानना बहुबिध है । वस्तु के एक भाग को देखकर पूर्ण वस्तु को जान लेना श्रनिःसृत ज्ञान है । जैसे ताल में डूबे हुए हाथी की सूड़ को देखकर हाथी को जान लेना । शीघ्रता से जाती हुई वस्तु को जानना क्षित्र ज्ञान है । जैसे, तेजी से चलती हुई रेलगाड़ी को या उसमें बैठकर बाहर की वस्तुओंों को जानना ।