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बिना कहे भी अभिप्राय को जान लेना अनुक्त ज्ञान है। बहुत फाल तक जैसा का तसा निश्चल ज्ञान होना या पर्वत इत्यादि स्थिर पदार्थ को जानना घ्रय ज्ञान है । अल्पका अथवा एकका ज्ञान होना अल्प ज्ञान है। एक प्रकार की वस्तुओं का ज्ञान होना एकविधज्ञान है। धीरे धीरे चलते हुए घोड़े वगैरह को जानना अक्षिा ज्ञान है। सामने विद्यमान पूरी वस्तु को जानना निहित ज्ञान है। कहने पर जानना उक्त ज्ञान है। चंचल बिजली इत्यादि को आमना अध्र व ज्ञान है। इस तरह बारह प्रकार का प्रयग्रह, बारह प्रकार का ईहा, बारह प्रकार का अवाय और बारह प्रकार का धारणा ज्ञान होता है। ये सब मिलकर ज्ञान के ४८ भेद होते हैं। तथा इनमें से प्रत्येक ज्ञान पांच इन्द्रियों
और मन के द्वारा होता है। अतः ४८ को इसे गुणा करने पर मतिज्ञान के २८८ भेद होते हैं।
ये २८८ मेद अर्थावग्रह की अपेक्षा से हैं। पदार्थ को ऐसा स्पष्ट जानना, जिस के बाद ईहा, अबाय, धारणा शान हो सके वह 'अर्थावग्रह, है। जो अवग्रह अस्पष्ट रूप हो जिस पर ईहा अवाय धारणा शान न हो सके वह व्यञ्जनाग्रह है । व्यञ्जनावग्रह चक्षु इन्द्रिय तथा मनके द्वारा नहीं होता है, शेष चार इन्द्रियों (स्पर्शन, रसना, घ्राण और करणं) से १२ प्रकार के पदार्थों का होता है, अत: व्यञ्जनावग्रह के १२४४ = ४८ भेद हैं।
इस तरह अर्थावग्रह की अपेक्षा मतिज्ञान के २८८ और व्यजनावग्रह की अपेक्षा ४८ भेद होते हैं, दोनों मिलकर (२८८+४८=३३६) ३३६ भेद भतिज्ञान के होते हैं।
व्यञ्जनावग्रह यदि बार बार होता रहे तो वह प्रविग्रह हो जाता है फिर उसके ऊपर ईहा अवाय धारणा ज्ञान हो जाते हैं। जैसे मिट्टी के कोरे प्याले में पहले १०-५ बूद जल डाला जावे तो वह तत्काल सूख जाता है किन्तु लगातार जल बू'दें पड़ती रहें तो वह प्याला गीला हो जाता है।
द्विविधं श्रुतम् ॥१०॥ श्रुतज्ञान मतिज्ञान-पूर्वक होता है, मतिज्ञान के बिना श्रुतशान नहीं होता । श्रतज्ञान के दो भेद हैं अक्षरात्मक, अनक्षरात्मक ।
सूक्ष्म लब्धि-अपर्याप्तक निगोदिया जीव के उत्पन्न होने के प्रथम समय ___ में स्पर्शन इन्द्रिय मतिज्ञान पूर्वक जो श्रुतशान होता है वह 'पर्याय' नामक श्रुत
ज्ञान है, उससे कम अ तज्ञान किसी जीव को नहीं होता, श्रु तज्ञान का क्षयोपशम भी इससे कम नहीं होता, अतः यह 'पर्याय' अतज्ञान निस्य-उद्घाटित