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________________ ( १६५ ) योग्य भी नहीं क्योंकि पापाचरण और पाप-चिन्तन से संसार-दुःख तथा पापसंतान बढ़ती है। अपना आत्म-तत्व ही उपादेय (ग्रहण करने योग्य) है। ऐसी श्रद्धा सम्यक्त्व है ॥२॥ पीने के लिये अंजलि में लिये हुए जल में जिस प्रकार अचानक मुख • दीख जाता है, इसी प्रकार दर्शन मोहनीय के उपशम से अचानक अदृष्ट प्रात्मस्वरूप स्पष्ट दीखकर उसकी अनुभूति होगा सम्यक्त्व है ।।२६।। चलते गिने, बोलते. गिरते समान, 5 मापनि समय, मृत्यु पाने के अवसर पर भी तत्व-चिन्तन में लगे रहना सम्यक्त्व है ।।३०॥ ___ आत्म-अनुभूति के बिना अनशन आदि तप व्यर्थ हैं, सम्यक्त्व के साथ तप लाभकारक है, उनसे कर्म-निर्जरा होती है। ऐसी प्रतीति के पश्चात् शुद्ध प्रात्मा की अनुभूति होना सम्यक्त्व है ।।३१।। ज्ञान चारित्र से भिन्न पापाचार तथा पापचिन्तन को त्याग कर आत्मस्वरूप को चिन्तवन करना सम्यक्त्व है ॥३२।। श्रावों भव्यानंदक। भावं भुवनैक वन्दितं निश्चयदि । दावननंतचतुष्टय । दाविभुतां दातृवेबबगे सम्यक्त्व।३३। यतिव॑ वखिळ वस्तुग । ळंतनितु मिर्द परियोळरिवनितरोळं । भ्रांतं विटु निजात्मन । नंतर्मुख नागिनेनेवुदनु सम्यक्त्व ३४। परमेष्ठिस्वामिगळं । वरभेदमनरिदुषि किल्बिषम सं । हरिसलुनेरेवनिजात्म । स्वरूप बिडदेनेनेधुददु सम्यक्त्व' ।३५॥ इंता श्रद्धानं सं । भ्रातियोळे करपलब्धि कंकोळ मु। मंतरणमें वाग्जालदि । नंतंतें दूळ वडकुमे सम्यक्त्व १३६॥ निजतत्वद रुचि रचितं । निजतत्वद रुचि समस्त वोधाद्वैतं । निजतत्वद रुचि जिननुति । निजतत्ववरचिये संयमपेरतुटे ।३७। निवतत्व सदैव । निजतत्वं पन्नित्तेरदतपमदेनिक्कु । निजतत्व चारित्र । निजतत्त्वशील मैंबबगे सम्यक्त्व' ।३८। निजतत्व नयनिकर। निजतत्वं तां प्रमाणभक्कुमवश्यं । निजतत्वं निक्षेपं । निजतत्व तत्वमेंब बगे सम्यक्त्व ३६। milim
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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