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________________ रूप से रचना होती है उसे समचतुरस्र संस्थान नाम कहते हैं। जिसके उदय से नाभि के ऊपर का भाग भारी और नीचे का पतला होता है जैसे बट का वृक्ष, उसे न्यग्रोध परिमण्डल संस्थान नाम कहते हैं। स्वाति यानी बाम्बी की तरह नाभि से नीचे का भाग भारी और ऊपर दुबला जिस कर्म के उदय से हो वह स्वाति संस्थान नाम है ! जिसके उदय से कुबड़ा शरीर हो वह कुब्जक संस्थान नाम है। जिसके उदय से बीना शरीर हो वह वामन संस्थान नाम है। जिसके उदय से विरूप अंगोपांग हों वह हंडक संस्थान नाम है । जिसके उदय से हड्डियों के बन्धन में विशेषता हो वह सहनन नाम है। उसके भी छै भेद हैं-वन मृषभ नाराच संहनन, वजनाराच संहनन, नाराच संहनन, अर्ध नाराच संहनन, कीलित संहनन और प्रसंप्राप्तासपाटिका संहनन नाम। जिसके उदय से ऋषभ यानी वेष्टन, नाराच यानी कीलें और संहनन यानी हड्डियां वच्च की तरह अमेद्य हों वह वज ऋषभ नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से कील और हड्डियाँ वष की तरह हों और वेष्टन सामान्य हो वह वन नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों में कीलें हों वह नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ों की सन्धियां अर्ध कीलित हों वह अर्घ नाराच संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ परस्पर में ही कीलित हों अलग से कील न हो, वह कोलित संहनन नाम है। जिसके उदय से हाड़ केबल नस, स्नायु वगैरह से बंधे हों वह असंप्राप्तासपाटिका संहनन है। जिसके उदय से शरीर में स्पर्श प्रकट हो वह स्पर्श नाम है। उसके पाठ भेद हैं-कर्कशनाम, मृदुनाम, गुरुनाम, लघुनाम, स्निग्ध नाम, रूक्षनाम, शीतनाम, उष्णनाम ! जिसके उदय से शरीर में रस प्रगट हो वह रस नाम है । उसके पांच भेद है--तिक्तनाम, कटुकनाम, कषाय नाम, प्राम्लनाम, मधुरनाम । जिसके उदय से शरीर में गन्ध प्रकट हो वह गन्धनाम है। उसके दो भेद हैं-सुगन्धनाम और दुर्गन्ध नाम । जिसके उदय से शरीर में वर्ण यानी रंग प्रकट हो वह वर्ण नाम है । उसके पाच भेद हैं-कृष्ण वर्ण नाम, शुक्ल वर्णनाम नोल वर्णनाम, रक्तवर्ण नाम और पीत वर्णनाम । जिसके उदय से पूर्व शरीर का आकार बना रहे वह आनुपूर्य नाम कर्म है। उसके चार भेद हैं-नरक गति प्रायोग्यानुपूर्यनाम, तिर्यगति प्रायोग्यानुपूयं नाम, मनुष्य गति प्रायोग्यानुपूय॑नाम और देवगति प्रायोग्यानुपूज्यनाम । जिस तरह मनुष्य या तियंच मर करके नरक गति की ओर जाता है तो मार्ग में उसकी आत्मा के प्रदेशों का प्राकार वैसा ही बना रहता है जैसा उसके पूर्व शरीर का प्राकार था जिसे वह छोड़कर पाया है, यह नरकगति प्रायोग्यापूर्यनाम कर्म का कार्य है। इसी तरह अन्य मानुपूर्वियों का कार्य जानना ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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