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________________ जिस तरह उन्होंने अपने गृहस्थ-पाश्रम में जनता को सबसे प्रथम समस्त कलाएं सिखलाई थी, इसी प्रकार घर परिवार से विरक्त होकर नग्न दिगम्बर रूप धारण करने के अनन्तर सबसे पहले उन्होंने मुनि चर्याका प्रादर्श भी उपस्थित किया । उस योगि-मार्ग में उन्हें एक हजार वर्ष तक मौन भाव से कठोर तपस्या करने के पश्चात् जब केवल ज्ञान प्राप्त हुआ तब वे इस युगके सबसे प्रथम वीतराग सर्वज्ञ प्रहंत परमात्मा बने । उस समय उन्होंने सबसे प्रथम जनता को संसार से पार होकर मुक्ति प्राप्त करने का सन्मार्ग प्रदर्शन किया, कर्मबन्धन, कर्म-मोचन, पारमा, परमात्मा, जीवनजीव आदि पदार्थो का यथार्थ स्वरूप अपनी दिव्य-ध्वनि द्वारा बतलाया । आर्य-क्षेत्र में सर्वत्र विहार करके समवशरण द्वारा धर्म का प्रचार तथा तत्व ज्ञान का प्रसार किया । जनता में प्राध्यात्मिक रुचि उत्पन्न की। इस प्रकार वे सबसे पहले धर्म-उपदेष्टा प्रख्यात हुए। प्रसिद्ध वैदिक दिगम्बर ऋषि शुकदेव जी से जब पूछा गया कि 'पाप अन्य अवतारों को नमस्कार न करके ऋषभ-अवतार (भगवान ऋषभ नाथ) को ही नमस्कार क्यों करते हैं ? तो उन्होंने उत्तर दिया कि 'अन्य अवतारों ने संसार का मार्ग बतलाया है, किन्तु ऋषभ देव ने मुक्ति का मार्ग बतलाया है, अतः मैं केवल ऋषभदेव को नमस्कार करता हूँ।' । भगवान ऋषभनाथ ने दीर्घ काल तक धर्म-प्रचार करने के अनन्तर कैलाश पर्वत से मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकार वे प्रथम तीर्थकर हुए। उनके ज्येष्ठ पुत्र भरत पहले चक्रवर्ती सम्राट् हुए, उनके ही नाम पर इस देश का नाम 'भारत' प्रसिस हुना। भगवान ऋषभनाय के मुक्त हो जाने पर उनकी शिष्य-परम्परा सत्वउपदेश तथा धर्म-प्रचार करती रही । फिर भगवान अजितनाथ दूसरे तीर्थंकर हुए उन्होंने राज-शासन करने के पश्चात् मुनि-दीक्षा लेकर अहंत-पद प्राप्त किया । तदनन्तर भगवान ऋषभनाथ के समान ही महान धर्म प्रचार और तात्विक प्रसार किया। भगवान अजितनाथ के मुक्त हो जाने पर क्रमशः शम्भव नाथ, अभिनन्दननाथ आदि तीर्थंकर क्रमशः होते रहे 1 बीसवें तीर्थकर मुनिसुव्रतनाथ हुए इनके समय में राम, लक्ष्मण, रावण प्रादि हुए। बाईसवें तीर्थकर भगवान नेमिनाथ हुए । नारायण कृष्ण इनके चचेरे भाई थे, कौरव पाएडव इनके समय में हुए हैं ! तेईसवें तीर्थकर भगवान पार्श्वनाथ और अन्तिम तीर्थकर भगवान महावीर हुए । इनमें से श्री वासुपूज्य, मल्लिनाथ, नेमिनाथ,
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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