________________
( १७४ )
केवल शरीर का मैल टूट जाता है परन्तु प्रात्मा का मेल नहीं छूटता; अतः नदी आदि में स्नान करना भावतीर्थ नहीं है।
सत्य तप, पांचों इन्द्रियों का निग्रह, सम्पूर्ण जीवों पर दया करना भाव तीर्थ है । इस भावतीर्थ में स्नान करने से प्रात्मा का कर्म मल नष्ट होता है तथा अन्त में स्वर्ग की या मोक्ष की प्राप्ति होती है। नदो समुद्र आदि नाम के ही तीर्थ हैं । इन में स्नान करने से कभी कर्म मल नहीं शुलता। अगर कर्म मल इन में स्नान करने से धुलता तो उनमें रहने वाले मेंड़क, मगर मच्छ ग्रादि अन्य जीव क्यों नहीं शुद्ध होते हैं? क्यों जन्म मरण किया करसे है ? उन को न स्वर्ग मिलता है न मोक्ष ही मिलता है। नदी आदि तीर्थ में स्नान करने से तो शरीरके बाहिरी मल का नाश होता है। अगर इससे पुण्य होने लगे तो उसो जल में उत्पन्न होने वाले उसी में बढ़ने और उसी जल को पीने वाले और उसी के अन्दर हमेशा रहने वाले जल-चर जीव मगर मछली आदि तथा जो सिंह बकरी हिरन आदि पशु पक्षी उसी का जल पीने वाले हैं उनको भी पुण्य बंध होना चाहिए । मनुष्य को इस प्रकार संकल्प करके वर्म की भावना करना और उसे स्वर्ग मोक्ष की प्राप्ति का साधन मानना तो रेत को पेल कर उस में से तेल निकालने के समान है। इसी तरह शास्त्र -घात से, अग्नि-धात से या पर्वत से गिर कर मरने वाले को पुण्य हो जावे और पानी में कूद कर या विष खाकर मरने को पुण्य माना जाय और इस से ही कर्मों की निर्जरा मान ली जाय तो 'ऋषि मुनियों के द्वारा बताये गये जप, तप, वत संयम, नियम अादि कर्म निर्जरा के कारगा हैं' वह सब युक्ति-युक्त वचन अन्यथा हो जायेंगे । इस मन--माने तीर्य और लोक मूढता के स्थानों में जाने से, मानने से कर्म बंध होता है, इसे दूर से ही छोड़ना चाहिए। ___ इस लोक को और परमार्थ को न जानने वाले, ढोंगी तथा पाखंडी पापी, द्वारा माने हुए हिंसा मय धर्म पर विश्वासं रखकर, स्त्री द्वारा पुरुष का रूप और पुरुष द्वारा स्त्रो का रूप धारण कर पायार विचार से रहित अपने आपको देव देवी मानने वाले स्त्री पुरुषों के वचनों को मान कर पाप वृद्धि करना और उस पर विश्वास करना सभी 'लोक मूढ़ता' है।
पाखण्ड-मुढता जिनको आत्मा परमात्मा, संसार मोक्ष, कर्मबन्धन, कर्ममोचन, लोक परलोक आदि का ज्ञान नहीं है, तप कुतप आदि का जिन्हें परिज्ञान नहीं, जिनको अपनी महला, ख्याति प्रशंसा की सीत्र उत्सुकता रहती है, भोजन,