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________________ ( १७५ ) वस्त्र, द्रव्य आदि से जिनकी मोह ममता बनी हुई है फिर भी जो अपने आपको साधु मानते तथा मनवाते हैं। इसके लिए कोई अपनी जटा बढ़ा लेते हैं, कोई नाखून बढ़ा लेते हैं तथा दण्ड, चीमटा आदि अनेक तरह की चीज अपने पास रखते हैं, गांजा सलफा, तुमारख, भंग. यादि पोते हैं. जिनके क्रोध, मान, माया, लोभ बने हुए हैं, वे साधु-गुण-शून्य पाखण्डी कहलाते हैं । ऐसे पाखण्डियों को गुरु श्रद्धा से मानना, पूजना, विनयसत्कार करना 'पाखण्डि मूढ़ता है। आध्यात्मिक गुणों का गौरव जिनमें पाया जाता है, जो सांसारिक मोह माया, प्रारम्भ, घर, गृहस्थी, परिग्रह से दूर रहते हैं, दया, शान्ति, क्षमा, धैर्य, अटल ब्रह्मचर्य, सत्य, लौच, संयम, वैराग्य जिनमें सदा पाया जाता है, जो ज्ञानाभ्यास, अात्मचिन्तन, हित-उपदेश, ध्यान, स्वाध्याय में लगे रहते हैं ने सच्चे गुरु या सच्चे साधु होते हैं । विवेकी पुरुष को ऐसे साधु गुरु की उपासना करनी चाहिए, क्योंकि उनकी ही पूजा उपासना से उनके गुण अपनी आत्मा में आते हैं । उनके सिवाय पाखंडी साधुओं की उपासना से आत्मा का कुछ कल्याण नहीं होता। इस कारण। पाखण्डियों की विनय पूजा उपासना 'पाखंडि मूढ़ता है। देव-मूढ़ता परमात्मगुरण-शून्य कल्पित देवों को या रागो द्वेषी आदि कुदेवों को आत्म-कल्याण की भावना से पूजना 'देव मूढ़ता है। देवों के ४ भेद हैं-१ देवाधिदेव, २ देव, ३ कुदव, ४ अदेव । रागढूष आदि भाव कर्म तथा मोहनीय आदि द्रव्य-कर्मों का नाश करके जो परम शुद्ध, परमात्मा, वीतराग, सर्वज्ञ, हितोपदेशक, त्रिलोक-पज्य हैं वे 'देवाधिदेव' हैं। जिन्होंने पूर्वभव में सुकुस पुण्य कार्य करके देव शरोर पाया है ऐसे सम्यग्दृष्टि कल्पवासी, व्यन्तर, ज्योतिबा देव "देव' या 'सुदेव' कहलाते हैं । वे सुमार्गगामी, देवाधिदेव बीतगग के अनुयायी, सेवक होते हैं । मिथ्यात्व भावना सहित जो क्रोधी, कुमारत, कलहप्रिय, तीत्र राग द्वेष धारक देव हैं, वे 'कुदेव होते हैं । स्वार्थी लोग अपने स्वार्थ साधन के लिए अपनी कल्पना से जिसको चाहे उसको देव मानकर पूजने पुजवाने लगते है, जोकि बास्ताब में देव होत भी नहीं हैं, वे 'अदेव' हैं।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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