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________________ (iv) इनमें से आत्म शुद्धि के लिए, संसार से मुक्ति प्राप्त करने के लिए, सर्व कर्म कल से छूटने के लिए वीतराग देवाधिदेव की ही पूजा करना चाहिए, अन्य किसी देव को नहीं । उपासना धार्मिक तथा लौकिक सत्कार्य में सहायता सहयोग प्राप्त करने के लिए जिनेन्द्र भक्त यक्ष, पद्मावती आदि सम्यग्दृष्टि देवों का भी साधर्मीवात्सल्य भावना से उचित आदर सत्कार करना चाहिए। जैसा कि प्रतिष्ठा आदि के समय करते हैं, परन्तु उन्हें आत्म शुद्धिका कारण न समझना चाहिए और न अन्त सिद्ध देवाधिदेव के समान पूजना चाहिए । कुदेव तथा प्रदेवों की पूजा उपासना कदापि न करनी चाहिए । जो मनुष्य हेय उपादेय ज्ञान से शून्य हैं जिन्हें कर्तव्य, धर्म, अधर्म का विवेक नहीं, ऐसे भोले भाले (मुर्ख) मनुष्य दूसरों की देखादेखी या किसी की प्रेरणा से अथवा अपने किसी कार्य सिद्धि की भावना से जो कुदेवों देवों की पूजा उपासना करते हैं, वह 'देवमूढ़ता' है । देवमूढ़ता से आत्म-पतन होता है ग्रात्म-कल्याण नहीं होता, अतः विवेकी आत्म-श्रद्धालु इस मूढ़ता ( मूर्खता) से भी बचा रहता है । ८ सद मदमें मिथ्यात्वद | मोदलदुतानेंभेदमाकु तन्नो ।। ळ दितमेने पेळ वडतं । सदविरहितदर्शनिक नक्कु पुरुषं । १०६ । अर्थ - मिथ्यावद्धा के कारण मनुष्य विविध कारणों से अभिमान करता हैं, जब मनुष्य मत्र छोड़ देता है तभी सम्यग्दर्शन प्राप्त करने का पात्र होता है, तभी वह दार्शनिक श्रावक होता है । अपने आपको अन्य व्यक्तियों से बड़ा समझकर दूसरों से घृणा करना 'मद' या अभिमान है | मद के भेद हैं १ कुलमद, २ जाति मद, ३ रूप मद ४ ज्ञान मद, ५ धन मद, ६ बल मद, ७ तप मद तथा अधिकार मद । पिता के पक्ष को 'कुल' कहते हैं। अपने कुल में अपना पिता मह ( दादा ), पिता, चाचा, ताऊ, भाई, भतीजा, पुत्र, आदि कोई भी व्यक्ति या स्वयं श्राप राजा, महाराजा, सेट, साहूकार पहलवान, विद्वान, चारित्रवान, यशस्वी आदि हो तो उसका अभिमान करना, दूसरों के कुल परिवारों को तुच्छ होन समझना, उनसे घृणा करना कुलमद है । जैसे मरीचिकुमार ने किया था कि मेरा पिता (भरत) चर्ती है, मेरा पितामह ( बाबा ) भगवान ऋषभनाथ पहले तीर्थंकर हैं, मेरे प्रपितामह ( पर दादा ) महाराजा नाभिराय अन्तिम
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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