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________________ ( १७० ) कुलकर हैं, मैं भी तीर्थंकर होने वाला है । इस प्रकार मेरा कुल सबसे अधिक श्रेष्ठ है । इसी कुलमद के कारण मरीचि को अनेक योनियों में भटकना पड़ा । माता के पक्ष को 'जाति' कहते हैं। तदनुसार अपनी माता के कुल परिवार में अपना नाना, माया नामान्पुन पात्र उचाधिकारी, राजा, मंत्री, सेठ, जमींदार, वनिक आदि हों तो उसका अभिमान करना, दूसरों को हीन समझकर उनसे घृणा करना 'जातिमद' है । अपना शरीर सुन्दर हो तो उस सुन्दरता का अभिमान करके अन्य सुन्दर स्त्री पुरुषों से घृणा करना 'रूपमद' है । सनत्कुमार चक्रवर्ती बहुत सुन्दर, थे, उनकी सुन्दरता देखने स्वर्ग से दो देव श्राये थे । इस कारण सनत्कुमार को अपनी सुन्दरता का बहुत अभिमान हुआ किन्तु कुछ क्षण पीछे उनकी सुन्दरता कम होने लगी। यहां तक कि मुनि अवस्था में उनको कोढ़ हो गया जिससे उनका शरीर बहुत असुन्दर हो गया । अपनी धन सम्पत्ति का अभिमान प्रगट करना 'धनमद' है । कनक- कनक ते सौगुनी, मादकता अधिकाय । जा खाये बौरात है, वा पाये बौराय ॥ यानी सोने (धन) में मद पैदा करने की शक्ति श्रतूर से भी अधिक है । तभी धतूरे को खाकर मनुष्य बौराता है किन्तु धन पाते ही बौराने लगता है । इस तरह धन का अभिमान अन्य सब अभिमानों से श्रधिक नशा लाता है। धन के नशे में अन्धा होकर मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है । अपने शरीर के बल का अभिमान करना 'बलमद' है । बलमद में चूर होकर मनुष्य निर्बल जीवों को सताता है, उन्हें ठुकराता है, भारता है, उन्हें लूटता खसोटता, अपमानित करता है । भरत चक्रवर्ती ने बलमद में ग्राकर अपने भाई बाहुबली से युद्ध ठान लिया किन्तु जब वह मल्लयुद्ध, जलयुद्ध, तथा दृष्टि युद्ध में बाहुबली से हार गये तब उनको प्रारण रहित करने के लिए उनपर चक्र चला दिया ऐसा प्रकृत्य मनुष्य बलमद में कर बैठता है । तपश्चरण श्रात्म शुद्धि के लिए किया जाता है, परन्तु जब उसी तपस्या का अभिमान किया जाता है तब वह तपस्या एक अवगुरण बन जाती है । तपमद करने वाला व्यक्ति अपने आपको महान तपस्वी, धर्मात्मा, महात्मा, शुद्धात्मा समझता है अन्य साधु मुनि ऋषियों को हीन समस्ता है । उनको घूरता की दृष्टि से देखने लगता है । मनुष्यों को पूर्व पुण्य कर्म उदय से राजकीय, सामाजिक, जातीय, धार्मिक, राष्ट्रीय, अन्तः राष्ट्रीय अविकार प्राप्त हुआ करते हैं । उस प्राप्त
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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