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{ २१३) कोई त्याग किया हुग्या पदार्थ यदि थाली में पा जावे तो भोजन छोड़ देना चाहिए और उसी समय मुख शुद्धि कर लेना चाहिए।
यदि अपने बर्तन अन्य मांसभक्षक आदि लोगों के बर्तनों से जावें तो कांसे का बर्तन फेंक देना चाहिए, तांबे पीतल के बर्तन अग्नि से शुद्ध करने चाहिए । भोजन में यदि बाल अादि निकल आवे तो भी भोजन छोड़ देना चाहिए।
भोजन करने में लगे हा दोप का प्रायश्चित्त गुरु से लेना चाहिए पर यदि गुरु न हो तो श्री जिनेन्द्र भगवान की प्रतिमा के सामने स्वयं प्रायश्चित्त ले लेना चाहिए। तथा
अस्पाङ्ग विलोक्यापि तवचः श्रवणगोचरे । भोजनं परिधि दुर्द पासादगि ।
अर्थ----अस्पश्यं (न छुने योग्य) अंग को देख लेने पर या उसका नाम सुन लेने पर तथा न देखने योग्य पदार्थ का नाम सुनने से भो भोजन छोड़ देना चाहिए ।
होस माडदवंग- १ प्रानुकुम दोल्दवंगे परमयिगळा ॥ वासदोळिप्पंगह-। त्शासन दोळ्पेळ्दमुळुलवं नडेदतुवे ।१३०॥
यानी-रात्रि भोजन करने वाले, अशुद्ध भोजन करने वाले, विधर्मियों के घर रहने वाले क्या ग्रहन्त भगवान के उपदिष्ट धर्म का प्राचरण कर सकते हैं ? अर्थात् नहीं ।
रात्रि भोजन त्याग
अहिंसावतरक्षार्थ मूलवतविशुद्धये ।
निशायां बर्जयेद्भुक्तिमिहामुत्र च दुःखदाम् ।।
अर्थ---अहिंसा व्रत की रक्षा के लिए तथा मूलव्रत की विशुद्धि के लिए इस लोक परलोक में दुःखदायक रात्रि भोजन को छोड़ देना चाहिए ।
पिपीलिकादयो जीवा भक्ष्यं तदपि कानिशि । गिल्यन्ते भोक्तभिः पुम्मिस्ते पुनः कबल : सम ।१५॥ स्फुटितांत्रिकरणादिनां ये काष्ठ तुरगवाहकाः । कुचेला दुष्कुलाः सन्ति ते रात्र्याहारसेवनात् ।१६। निजकुलैकमण्डनं त्रिजगदीशसम्पदम् । भजतीह स्वभावतः त्यजति नक्तभोजनम् ।१७।