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मौनं सप्तस्थानम् ।२०। अर्थ--सात स्थातों पर मौन रखना चाहिए, मुख से कुछ बोलना नहीं चाहिए।
मौन के सात अवसर:हदनं मूत्ररण स्नान पूजन परमेष्ठिनाम् ।। भोजनं सुरतं वमनं स्तोत्रं मौनसमन्वितम् ।। मृष्टवाक् सुरनरेन्द्रसुखेशो बल्लभश्च कविताविगुगनाम् । केवलच मरिणबोधितलोको मौनसुबतफलेन नरः स्यात् ॥१०॥ दूरः कलत्रपुत्रादि वर्जनादिविवजितः । मौनहीनो भवेन्नित्यं घोरवुःखैकसागरः ॥११॥ अतिप्रसंगवहनाय तपसः प्रबुद्धये। अन्तरायस्कृता सद्भिर्तबीजवतिक्रिया ।१२।
अर्थ--टट्टी करने, पेशाब करने, भगवान की पूजन करने, भोजन करने, मैथुन करने, कय (वमन) करने तथा भगवान की स्तुति करने के समय मौन रखना चाहिए । (पूजन करते समय तथा स्तोत्र पढ़ते समय अन्य कोई बात न करनी चाहिए, शेष टट्टी, पेशाब, भोजन, मैथुन और कय करते समय सर्वथा चुप रहना चाहिए) । मौन व्रत के फल से मनुष्य शुद्ध बोलने वाला, देव चक्रवर्ती राजा का सुख भोगने वाला, कविता आदि गुणों का प्रेमी, केवल ज्ञान से जगत को प्रकाश देने वाला होता है । पुत्र, स्त्री आदि के वियोग से रहित होता है । उक्त ७ अवसरों पर मौन न रखने वाला व्यक्ति घोर दुःख पाता है ।
अति प्रसंग ( अति मैथन ) को नष्ट करने के लिए तथा तप की वृद्धि के लिए प्रत को बीजभूत व्रती की मौन क्रिया है। मौन भङ्ग को बुद्धिमानों ने अन्तराय बतलाया है। अन्तराय को कहते हैं:--
अन्तरायं च १२॥ अर्थ-.भोजन करते समय मांस को देखना, मांस की बात सुनना, मन में मांस का विचार आना, पीप का देखना या पीप का नाम सुमना का . देखना या सुनना तथा भोजन करते समय परती
कोड़ा प्रादि पा जाना भोजन का अन्तरास का काम देखने पर भोजन का अन्तरायः अमर
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