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________________ (१०८) असुर प्रादि देवों के चिन्हों को बतलाते है :--- [१] चूडामरिण [२] फरिण [३] गरुड़ [४] गज [५] मकर [६] बर्द्धमान [७] वन [८] सिंह [६] कलश और [१०] अश्व ऐसे वस चिन्ह क्रमशः असुरादि देवों के होते हैं। असुरादि के ध्वजा और चैत्यवृक्ष एक ही समान होते हैं सो बतलाते हैंअश्वत्थ, सप्तच्छद, शाल्मली, जम्बू, हच्च, कड, छाया, सिरीश, पलाश, राजद्र म ये तीन कोट, तीन कटनी तथा चार गोपुर और मानस्तम्भ, तोरण आदि से सुशोभित जम्द वृक्ष के समान होते हैं । प्रत्येक वृक्ष के नीचे पल्यंकासनस्थ ५०० धनुष प्रमाण भगवान की पांच-पांच प्रतिमायें प्रत्येक दिशा में विराजमान हैं जिनकी पूजा नित्य प्रति देव करते हैं । चमर देवों के चतुस्त्रिंशल्लक्ष ३४००. ००० भवन हैं । वैरोचन के ३० लाख, भूतानन्द के ४० लाख, जलप्रभ के ३६ लाख, हरिषेण के ४० लाख, महाघोष के ३६ लाख, अमितगति के ४० लाख, अमितवाहन के ३६ लाख, अग्निशिख के ४० लाख, अग्निवाहन के ३६ लाख, वेलम्भ के ५० लाख तथा प्रभजन के ४३ लाख भवन होते हैं। कुल मिलकर ७ करोड ७२ लाख भवन होते हैं । ये सभी भवन रत्नमय है। इन भवनों में संख्यात योजन वाले भी हैं और असंख्यात योजन वाले भी हैं। सभी भवनों का प्राकार चतुरस्र तथा धनुषाकार होता है । उनका विस्तार ३० योजन है । मध्य प्रदेश में १०० योजन ऊंचाई वाले रश्न पर्वतों के ऊपर अत्यन्त रमणीय प्रकृत्रिम चैत्यालय विराजमान हैं । इस भूमि के नीचे १००० ( एक हजार ) योजन की दुरी पर व्यन्तर और अल्पद्धिक देव तथा दो हजार योजन पर महद्धिक देव रहते हैं। इसके अतिरिक्त यदि ४२००० (४२ हजार) योजन पर्यन्त आगे जावें तो उत्तम महद्धिक देवों का दर्शन होता है। भवन वासियों में से असुर देवों के, प्यन्तरों में से राक्षसों के तो पंक भाग में और शेष बचे हुए सभी देवों के खर भाग में भवन होते हैं । इन्द्र तो राजा के समान, प्रतीन्द्र युवराज के समान, दिगिन्द्र तन्त्रपाल के समान, प्रायस्त्रिंश देव पुत्र के समान, सामानिक देव कलत्र के समान, तनुरक्षक देव अंगरक्षक के समान, पारिषद जयदेव माभ्यन्तर, मध्यम और बाह्य प्रवेशकों के समान, अनीक देव सेना के समान, प्रकीर्णक देव पुरजन के समान, पाभियोग्य देव परिजन के समान और किल्विषक देव गायकों के समान होते हैं। इन्द्र के समान प्रतीन्द्र तथा सोम, यम, वरुण, कुवेर ये पूर्वादि दिशा में रहने वाले लोकपाल देव कहलाते हैं ।।३६॥ त्रायस्त्रिंश देवों की, चमरादिक तीन की, बचे हुए सभी की तथा सामानिकों की संख्या बताई है, सो इस प्रकार हैं:
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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