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अभयदान मुनि आदि अनगार व्रतियों के ठहरने के लिये नगर के बाहरी प्रदेशों, वन, पर्वतों में तथा नगर पुर में मठ बनवाना, जिसमें कि जङ्गली जीवों से सुरक्षित रहकर वे ध्यान आदि कर सकें। आगन्तुक विपत्ति से उनकी रक्षा करना तथा साधारण जनता के लिए धर्मशाला वनवाना, विपत्ति में पड़े हुए जीव का दुःख मिटाना, भयभीत प्राणियों का भय मिटाना प्रादि अभयदान है। अभयदान में शूकर प्रसिद्ध हुया है। इन प्रसिद्ध व्यक्तियों की कथा अन्य कथा ग्रन्थों से जान लेना चाहिये।
दान का फल सौरूप्यमभयादाहुराहाराद्भोगवान् भवेत् । श्रारोग्यमौषधाद्ज्ञेयं श्रुतात् स्यात् श्रुतकेवली ॥ गृहाणिनामता नैव तपोराशिभवाशः। सम्भावयति यो नैव पावनः पादपांशुभिः ॥ देव धिष्ण्यमिवाराव्यमध्यप्रभृति यो गृहं । युष्मत्पावरजःपातःधौतनिःशेषकल्पषः।।
अर्थ-पाप कर्मों से निर्मुक्त, पवित्र पुण्य मूर्ति ऐसे तपस्वियों के पाद (चरण) में लगी हुई धूलि जिनके गृह में पड़ गई है ( या ऐसे मुनियों ने जिनके गृह में प्रवेश किया है ) वह गृह देव गृह से भी अधिक पवित्र समझना चाहिए। उस तपस्वी को झुककर नमस्कार करने से उत्तम कुल की प्राप्ति होती है। नवधा भक्ति पूर्वक आहार दान देने वाले दाता अनेक भोग और उपभोगों के भोगने वाले होते हैं । शास्त्र दान देने से जगत में पूज्य तथा अगले जन्म में उसी दान के फल से श्रुत केवली होता है । उत्तम सर्वागों से सुन्दर शरीर वाला होता है, भक्ति से स्तुति करने वाले इस जन्म और पर-जन्म में धवल कीर्ति पाता है । तथा देवगति को प्राप्त होकर वहाँ के भोग भोग कर अन्त में मनुष्य लोक में आकर अत्यन्त सुखानुभव करता है फिर तपश्चरण करके कर्म क्षय करने के बाद मोक्षपद को प्राप्त कर लेता है।
झंभयदान से (सम्पूर्ण जीवों पर दया तथा अभय करने से) इस लोक में तथा परलोक में निर्भय होकर इह लोक में सुख पूर्वक शत्रु रहित अपना जीवन पूर्ण करता है अन्त में निर्वाण पद प्राप्त कर लेता है।
सप्त शीलानि ॥१८॥ अर्थ--सात शील इस प्रकार हैं। तीन गुणव्रत और पार शिक्षाप्रत मिलकर सात शील होते हैं । पहिले