SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 344
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ३५) समाधान-अाकाश द्रव्य का प्राधार अन्य कोई नहीं वह स्वयमेव अपना प्राधार है । प्राकाश के अन्दर अवगाहन देने की शक्ति है और वह सबसे बड़ा हैं। क्योंकि उसमें कभी किसी प्रकार की न्यूनता नहीं पाती। शंका-लोक केवल १४ रज्जू प्रमाण है, परन्तु उसमें अनन्तानन्त अप्रमाणिस जीव आ जाकर कैसे समाविष्ट हो जाते हैं। क्योंकि इस लोकाकाश में जीव द्रव्य, पुद्गल द्रव्य तथा सिद्धादि अनंत गभित हैं समाधान-ग्राकाश द्रव्य गमनागमन का कारग नहीं, बल्कि केवल अवगाहन का कारण है, अतः इसमें चाहे जितने द्रष्य आजायें पर इसमें कभी हानि वृद्धि नहीं होती (वैसे द्रव्य कम अधिक होते नहीं हैं ।) इसका उदाहरण ऊपर दे चुके हैं। अब कालद्रव्य के गुएरा पर्याय को कहते हैं: काल के दो भेद हैं-एक व्यवहार और दूसरा निश्चय । मुख्यकाल द्रव्यस्वरूप से अमूर्त अक्षय, अनादिनिधन है और अगुरुलघुत्व गुण से अनन्त है। प्रकृत्रिम, अविभागी, परमाणु रूप है, प्रदेश प्रमाण से एक प्रदेशी है। अपने अन्दर अन्य प्रतिपक्षी नहीं, किन्तु वह स्वयमेव प्रदेशी है। भावार्थ-प्रति समय छः द्रव्यों में जो उत्पाद और व्यय होता रहता है उसका नाम वर्तना है। यद्यपि सभी द्रव्य अपने अपने पर्याय रूप से स्वयमेव परिणमन करते रहते हैं, किन्तु उनका बाह्य निमित काल है। अतः वर्तना को काल का उपकार कहते हैं। अपने निज स्वभाव को न छोड़कर द्रव्यों की पर्यायों को बदलने को परिणाम कहते हैं। जैसे जीव के परिणाम क्रोधादि हैं और पुद्गल के परिणाम रूप रसादि हैं । एक स्थान से दूसरे स्थान में गमन करने को क्रिया कहते हैं। यह क्रिया जीव और पुद्गल में ही पाई जातो है । जो बहुत समय का होता है उसे 'पर' कहते हैं और जो थोड़े दिनों का होता है उसे अपर कहते हैं । यद्यपि परिणाम प्रादि वर्तना के भेद हैं किंतु काल के दो मेद बतलाने के लिये उन सबका ग्रहण किया गया है । काल द्रव्य दो प्रकार का है-एक निश्चय और दूसरा व्यवहार काल । निश्चय काल का लक्षण वर्तना है और व्यवहार काल का लक्षण परिणाम आदि हैं। जीव पुद्गलों में होनेवाले परिणामों में ही व्यवहार काल घड़ी घंटा आदि से जाना जाता है। उसके तीन भेद है-भूत वर्तमान और भविष्य । इस घड़ी मुहर्त दिन रात आदि काल के व्यवहार से निश्चयकाल का अस्तित्व जाना जाता है। क्योंकि मुख्य के होने से ही गौए का व्यवहार होता है । अतः लोकाकाश के प्रत्येक
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy