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चक्रवर्ती में कोई ऊर्ध्वगामी होते हैं। कोई कोई अधोगामी होते हैं । वेसठ शलाका भव्य होते हैं। भेदाभेद रलत्रयात्मक धर्म को धारण कर उसी भव से स्वर्ग जाने तफ जो कथा कही जाती है उसे अर्थाख्यान कहते हैं । मोक्ष जाने तक जो कथा है वह चारित्र कहलाती है। तीर्थंकर और चक्रवर्ती के कथानक को पुराण कहते हैं। समन्त भद्र प्राचार्य ने भी ऐसा ही कहा है:----
प्रथमानुयोगमाख्यान चरित'पुराणमपि पूण्य ।
बोध समाधि निधानं बोवति बोध: समीचीनः ॥ पंच मन्दिर के पूर्वापर विदेह क्षेत्र में ऐसे तीर्थंकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव महान पुरुष सभी काल में होते रहते हैं।
भरत ऐरावत क्षेत्र में १८ कोड़ाकोड़ी सागर काल बीत जाने पर द्विगुण .६३ शलाका पुरुष दो कोडाकोड़ी काल के अन्दर पैदा होते हैं। कहा भी है :----
जिनसमपट्टविदा समकाले सुन्नायट्ठिमेरचिदा । उभयजिनत्तरजादा सन्नेया चक्क हर रुद्दा ॥५८। पण रणजिनखदुति जेना, सुन्न दुज्जेरण गगन जुगल जेन खदुगम ।। जेन कज्जेण खदुजेणा क्यड्डिजयोतिषशालया नेया ।।५६॥ चक्कि दुग मत्थसुरणं, हरिपए छह चरिक केशि नव केशि । अडुिनभच्चक्कि हरिनभ, चक्कि हरिचक्कि सुरागण दुर्ग ॥६०।। रुद्गच्छ सुराणा सत्तह रागगग जुगरणमिसागय ।
पएणदनभाणितत्तो, सन्भयि तरणों महावीरे ॥६॥ यह भगवान जिनेन्द्र के अन्तराल काल में होने वाले चमवर्ती इत्यादि की गाथा है।
श्री माघनंद्याचार्य बिरचित शास्त्र सार समुच्चय का प्रथमानुयोग नाम का पहला अध्याय समाप्त हुप्रा ।