________________
करणानुयोगः
I
परम श्री जिन पतियं । स्मरियिसि भव्य पेल्वेरणां कन्नडद ॥ करणानुयोग मंभुव । भुवनत्रयेक हितमंनुतमं ॥१॥
अर्थ- वीतराग जिनेंद्र भगवान् का स्मरण करके तीन लोक में हितकारी भव्य जीवों को हिंदी भाषा में कररणानुयोग शास्त्र के विवेचन को कहूँगा !
अथ त्रिविधो लोकः ॥ १॥
अर्थ-धोलोक, मध्यलोक, ऊर्ध्वलोक इस प्रकार यह तीन लोक है । free देखिये उधर दीखने वाले अनंत ग्राकाश के बीच अनादि निधन अकृत्रिम स्वाभाविक नित्य सम्पूर्ण लोक आकाश है । जिसके अन्तर में जीवाजीवादि सम्पूर्ण द्रव्य भरे हुए हैं। जोकि नीचे से ऊपर तक चौदह राजु ऊंचा है । पूर्व से पश्चिम में नीचे सात राजु चौड़ा, सात राजु की ऊंचाई पर प्राकर मध्यलोक में एक राजु चौड़ा, फिर क्रमश: फैल कर साढ़े दस राजू की ऊंचाई पर पाँच राजु होकर क्रमशः घटता जाकर अन्त में एक राजु चौड़ा रह गया है । दक्षिण से उत्तर में सब जगह साल राजु है । जो घनोदधि, घनोनील और तनुवात नाम वाले तीन वातवलयों से वेष्टित है । नीचे में सात राजु ऊंचाई बाला अधोलोक है जिसमें भवनवासी देव और नारकी रहते हैं ।
द्वीप समुद्र का आधार, महा मेरु के मूलभाग से लेकर ऊर्ध्वं भाग तक एक लाख योजन ऊंचा मध्यम लोक है । स्वगदि का आधार भूत पंचचूलिका मूल से लेकर किंचित न्यूत सप्त रज्जु ऊंचाई वाला ऊर्ध्वलोक हैं । ऐसे तीन लोक के बीच में एक रज्जु विस्तार चौदह राजु ऊंचाई वाली बस नाली है ।
सप्त नरकाः ॥२॥
अर्थ - रत्न, शर्करा,
बालुका, पंक, धूम, तम,
वाले सात नरक हैं । इनका विस्तार इस प्रकार है ।
महातम इन नामों
aria वाताकाश प्रतिष्ठित एक एक रज्जु की ऊंचाई के विभाग .से विभक्त होकर लोकांत तक विस्तार वाली ये मद्दा भूमियाँ हैं ।