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________________ राजस्व टी से कगई लीप पर्यन्त पूर्वोक्त चन्द्र-सूर्य प्रभृति ज्योतिविमान अपनी राशि का अर्द्ध, द्वीप समुद्र के पथ क्रम में संचार करते रहते हैं। कहा भी है कि:सगसगजोइगरणद्धं एक्केभागम्मिदीचुरहियाणा । एक्के भागे अहचरन्ति पत्तेक्क मेरोय ॥१८॥ ऐसे विमान पूर्वादिक चारों दिशाओं में स्थित हैं । करिम्पुक करी हरिरिषभभटा पुरंगमाकार वाहनामररेणछासिरनिरिणखरकर हिमकररोळमौद्ध मक्कुमितरत्रिकदोळ ॥ सभी नक्षत्रों के उत्तर दिशा में अभिजित्, दक्षिण दिशा में मूल नक्षत्र, ऊवं, अधो तथा मध्यम भाग में स्वाति, भरणी, कृतिका रहकर संचार करते है। जो स्थिर नक्षत्र हैं उनका भी यही क्रम है । और तारकात्रों के अन्तर समीप । पाये हुए तारकायों के एक कोश का सातवाँ भाग (3) दूर रहता है। उसका अन्तर ५५ योजन है । गुप्त हुए तारकाओं का अन्तर १००० योजन है। मनुष्य क्षेत्र से बाहर रहने वाले चन्द्रादित्य वलय क्रम से किरण देते रहते हैं। वह इस प्रकार है:-मानुषोत्तर पर्वत से प्रारम्भ होकर द्वीप समुद्र वेदिका के भूल से पचास पचास हजार योजन दूर पर वलय हैं। उसके आगे एक एक लाख योजन दूर पर बलय हैं । मणुसुत्रार सेरणादोवेदियमूलाददिवउवहीणं । पम्णास सयस्साहियलखे लक्खेतदों वलमं ॥ एक-एक वलय में रहने वाले सूर्य और चन्द्र की संख्या कहते हैं: पुष्कर द्वीपार्द्ध के प्रथम वलय में १४४ चन्द्र और इतने ही सूर्य हैं । इसके बाहर के वलय में चार चार सूर्य चन्द्र की वृद्धि होती है। तदनन्तर के द्वीप समुद्रों के अादि में पहले द्वीप समुद्र के प्रादि से दुगुनी संख्या में सूर्य होते हैं। और इसी क्रम से संख्यात, असंख्यात वलय में सूर्य का अन्तर है। अब आगे चन्द्र का अन्तर निर्दिष्ट करते हैं :-- परिधिळ परिधिगे सं। तरबिन्दुर्गाळविभागिसलु तंम तमं ।।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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