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________________ ( १७ ) पाठ दोष जिन से सम्यग्दर्शन दूषित होता है उसे दोष कहते हैं। वे पाठ हैं-१ शंका, ३ कक्षा, ३ बिचिकित्सा, ४ मूढ़ष्टि, ५ अनुपगृहन, ६ प्रस्थितीकरण, ७ अवात्सल्य, ६ अप्रभावना । बीतराग और सर्वज्ञ होने के कारगा जिनेन्द्र भगवान यथार्थ वक्ता (ग्राप्त) हैं, अत: उनके वचनों में सम्यग्दृष्टि को निःशंक रहना चाहिए। ऐसा न होकर यदि उनके उपदिष्ट किसी सिद्धान्त या किसी बात में सन्देह प्रगट किया जाय तो वह 'शंका' दोष है। पात्मा के गगृतन्य शान्त ग, अनात शुल्स से अनभिज्ञ या विमुख रहकर सांसारिक, नायिक, न्द्रियजन्य, भौतिक मोग उपभोग-जन्य सुख की इच्छा करना 'कांक्षा' दोष है। रनत्रय रूप श्राध्यात्मिक गुणों का आदर न करते हुए ऋषियों, मुनियों का भलिन शरीर देखकर उनसे गणा करना 'विचिकित्सा' दोष है । चेतन, जड़, संसार, मुक्ति, पुण्य पाप, हेय उपादेय आदि के आवश्यक ज्ञान से शून्य मूढ़ बने रहना 'मूढष्टि ' दोष है । अपने गुण प्रगट करना, दूसरे के दोष प्रगट करना, धर्मात्मा के अवगुणों को न ढकना 'अनुपग्रहन' दोष है। दरिद्रता, मूर्खता या अन्य किसी कारण से कोई मनुष्य अपना धर्म छोड़ कर विधर्मी हो रहा हो तो उसे उपाय करके अपने धर्म में स्थिर करने का प्रयत्न न करना 'अस्थितिकरण' है । अपने साधर्मी ठयक्ति से कलह करना, उससे प्रेम न करना 'वात्सल्य दोष है। अपने धर्म का प्रचार करने तथा इसका प्रभाव जगत में फैलाने का यथासाध्य प्रयत्न न करना 'अप्रभावना दोष है। इस प्रकार ३ मूढ़ता, ५ मद, ६ प्रनायतन और ८ दोष, ये सब मिलकर सम्यादर्शन के २५ मल दोष हैं । इनके द्वारा सम्यग्दर्शन गुरग स्वच्छ निर्मल न रह कर, मलिन हो जाता है। . अष्टांगानि ॥७॥ अर्थ-जिस प्रकार शरीर को ठीक रखने के लिए हाथ, पैर, शिर, छाती, पीठ, पेट आदि पाठ अंग होते हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन को पूर्णस्वस्थ रखने के लिए पाठ अंग होते हैं। उनके नाम
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
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