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१ निःशंकित, २ निःकांक्षित, ३ निविचिकित्सा, ४ अमूढ-दृष्टि, ५ उपगृहन, ६ स्थितिकरण, ७ वात्सल्य, ८ प्रभावना ।
जिनवाणी में रेच मात्र भी शंका सन्देह न करना निःशकित अंग
सांसारिक विषय भोगों की इच्छा न करना निःकांक्षित अंग है।
निर्ग्रन्थ साधु के मलिन शरीर से घृणा न करना उनके प्राध्यात्मिक गुणों से अनुराग करना निविचिकित्सा अंग है।
प्रात्मा, अनात्मा, प्राचार अनाचार, पाप, पुण्य. हेय उपादेय प्रादि आवश्ययक बातों का ज्ञान प्राप्त करना, इनसे अनभिज्ञ (अजान ) न रहना अमूढ दृष्टि अंग है।
किसी साधर्मी भाई, मुनि ऐलक, क्षुल्लक, आर्यिका, क्ष ल्लिका, ब्रह्मचारी आदि व्रती से प्रात्म-निर्बलता के कारण कोई दोष या त्रुटि हो जाय तो उसको प्रगट न करना, गुप्त रूप से सुधारने का यत्न करना उपगहन अंग है ।
कोई साधर्मी स्त्री पुरुष किसी कारणवश अपना धर्म छोड़ने को तैयार हो तो उसे समझा-यझा कर तथा अन्य अच्छे उपाय से धर्म में स्थिर रखना स्थितिकरण अंग है।
अपने साधर्मी व्यक्ति से ऐसा प्रेम करना जैसे गाय अपने बछड़े के साथ करती है, यह वात्सल्य अंग है ।
दान, परोपकार, ज्ञान प्रचार, शास्त्रार्थ, उच्चकोटि का चारित्र पालन करना, व्याख्यान, पुस्तक वितरण आदि विविध उपायों से धर्म का प्रभाव सब जगह फैलाना प्रभावना अंग है ।
__इन आठ अंगों के प्राचरण करने से सम्यग्दर्शन पूर्ण एवं पुष्ट रहता है।
इन पाठ अंगों को पालन करने में निम्नलिखित व्यक्ति प्रसिद्ध हैं--
प्रजन चोर निःशंकित अग में, अनन्नमती निःकांक्षित अग में, उद्दायन राजा निविचिकित्सा अंग में, अमूत-दृष्टि अग में रेवती रानी, जिनेन्द्रभक्त सेठ उपग्रहन अग में, वारिषेण स्थितीकरण में, विष्णुकुमार ऋषि वात्सल्य अंग में और बजकुमार मुनि प्रभावमा अग में जगविख्यात हुए हैं। विस्तार भय से यहां उनकी कथा नहीं देते हैं अन्य ग्रन्थों से उन्हें जान लेना।
जलस्नानत्यागी महावती साबुनों का शरीर मैला देखकर उससे घृणा करना विििकत्सा अतिचार है ।