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( ११०) विस्तार वाले तथा तीन सौ योजन' उत्सेध बाले हैं। पच्चीस योजन तार चाले समान बोन की सनाई गाले लघन्य ग्रावास हैं। इसके बीच और भी अनेक प्रकार की ऊंचाई वाले और विस्तार वाले मध्यम आवास है परों में से उत्कृष्ट पुर इकावन लाख योजन विस्तार वाले, जघन्य पुर एक पॉल विस्तार वाले हैं। ग्रावामों में उत्कृष्ट ग्रावास बारह हजार दो सौ योजन विस्तार वाले है । जघन्य आवास तीन कोस बिस्तार वाले हैं।
एक-एक कुल में दो दो इन्द्र होते हैं। एक-एक इन्द्र के दो दो महादेवियाँ होती हैं और दो हजार बल्लभिकायें होती है जो विक्रिया-शक्ति वाली होती हैं। देवियों के साथ में देव लोग-जलक्रीड़ा और सुगन्धित और अच्छे कोमल स्पर्श वाले स्थलों में स्थल क्रीड़ा, चम्पक अशोक सप्तन्छद बनों में होने वाले पुष्पलता मण्डपों में वन क्रीड़ा करते हैं और रजत सुवर्ण, रत्नमय क्रीड़ा-गृहों में अचल क्रीड़ा करते हैं। विचित्र रत्न खचित, षोडश वर्ण निर्मित भवनों की ऊपर की मंजिलों में स्फटिकमय भीतों वाले शयनागारों में पिनी हुई रुई के बने हुये सुकोमल विस्तरों पर सुख क्रीड़ा, विनोद मंदिर में गीत, मैदान में झूला भूलने की क्रीड़ा तथा अश्व, गजादि की क्रीड़ा करते हुए सुख से काल बिताते है। सुगन्धित तथा सुस्वादु दिव्य द्रव्यों को अपने हाथों में लेकर प्रकृत्रिम चंत्यालयों में जावार जिनेन्द्र भगवान का अभिषेक अष्टविध पूजा करते हुए अपनी 'मायु पर्यन्त सुख से काल व्यतीत करते हैं।
वरजिन भवनं भावनामरलोक वोळेळु कोटिय मेगेप्प ।। तेरडेरडुलक्केयस्कुरुमुदवि विनय विमत मस्तक नप्पेम् ॥३६॥ भवनेषु सत्तकोटि बाहतरि लक्स होति जिन गेहा । भवनामरिन्द महिरा भवमा समेतानि वदामि ।। गाथा १६॥ अष्टविधव्यन्तराः ॥३॥
अ-किलर किंपुरुष २, महोरग ३, गंधर्ष ४, यक्ष ५, राक्षस ६, भूत ७ और ८ पिशाच इस प्रकार व्यन्तर ८ प्रकार के हति है । इन व्यन्तरारे. ८ प्रकार के चैत्यवृक्ष होते हैं जो निम्नांकित हैं:-अशोक, चम्पक, पुन्नाग, तुम्बुक बट, पलास, तुलसी तथा कदम्ब ये ८ चैत्यदृक्ष हैं। इन्हीं वृक्षों से पृथ्वी सारभूत रहती है । यह सब जम्बू वृक्षार्द्ध प्रमाण हैं। इन समस्त वृक्षों के नीचे मूल भाग में पल्यङ्कासनस्थ, प्रातिहार्य-सम्बित तथा चारु तोरणों से सुशोभित चतुर्मुखी