SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 359
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (-- ३४० ) चतुविशतिस्तव, ३ - वन्दना, ४ प्रतिक्रमण, ५-- वेनयिक, ६ -- कृतिक्रम ७- दशकालिक, ८-- उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, १०-कल्पाकल्प, ११महाकल्प, १२ - पुण्डरीक, १३ - महापुण्डरीक और १४ - तिषिद्धिका । १ साधुओं के समताभाव रूप सामायिक का कथन करनेवाला सामायिक प्रकीक है । २ चौबीस तीर्थंकरों के स्तवन की विधि विधान बतलाने वाला प्रकरण के चतुविशतिस्तव है । ३ पंचपरमेष्ठी की वन्दना करनेवाला शास्त्र 'यन्दना' प्रकोण क ४ देवसिक, पाक्षिक, मासिक श्रादि प्रतिक्रमण का विधान करनेवाला प्रतिक्रमण प्रकीर्णक है । ५ दर्शन, ज्ञान, चारित्र, और उपचार विनय का विस्तार से विवेचन करनेवाला धिक प्रकीर्णक है । ६क्षास्त्र में हो वह कृतिकर्म ७ द्रव, पुष्पित श्रादि १० अधिकारों द्वारा मुनि के भोज्य पदार्थों का विवरण जिसमें पाया जाता है वह दशकालिक है । ត उपसर्ग तथा परिषह सहन करने आदि का विधान उत्तराध्ययन प्रकीरण क में है । ९ जिसमें दोषों के प्रायश्चित्त आदि का समस्त विवरणं हूँ वह कल्पव्यवहार है 1 T १० सागर अनागार के योग्य अयोग्य आचार का जिसमें विवेचन पाया जाता है वह कल्पकल्प प्रकीरण के है । ११ दीक्षा, शिक्षा, गरणपोषण, संलेखना श्रादि ६ काल का जिसमें कथन पाया जाता है वह महाकल्प है। १२ भवनवासी ग्रादि देवों में उत्पन्न होने योग्य तपश्चरण आदि कारण जिसमें है वह पुण्डरीक है । १३ भवनवासी आदि देवों की देवियों की उत्पत्ति के योग्य तपश्चर्या आदि की विधिविधान महापुण्ड रोक में है ।
SR No.090416
Book TitleShastrasara Samucchay
Original Sutra AuthorMaghnandyacharya
AuthorVeshbhushan Maharaj
PublisherJain Delhi
Publication Year
Total Pages419
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size9 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy