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१४ स्थूल सूक्ष्म दोपों का संहनन शरीर बल आदि के अनुसार प्रायश्चित्त आदि का विधान जिसमें है वह निविधिका है ।
त्रिविधमयधिज्ञानम् ॥१३॥ देशावधि, परमावधि तथा सर्वावधि ये अवधि ज्ञान के तीन भेद हैं । रूपो द्रव्यके द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव की मर्यादा से जानना अवधिज्ञान है। यह प्रवि ज्ञानावरण, बीयन्तिराय के क्षयोपशम से उत्पन्न होता है । इसमें देशावधि के भवप्रत्यय तथा गुरा प्रत्यय ये दो भेद होते हैं। उसमें देव और नारकी के उत्पन्न होने वाला अवधि ज्ञान भव-प्रत्यय है तथा तीर्थंकर परम देव के सर्वाङ्ग से प्रगट होने वाला गुण-प्रत्यय ज्ञान है । विशुद्धि के कारण गुणवान मनुष्य और तिर्यश्च की नाभि के ऊपर रहने वाले शंखादि चिन्हों में उत्पन्न होता है। उसके छ भेद हैं-अनुगामी, अननुगामी, वर्धमान, हीयमान, अवस्थित, अनवस्थित ।
सूर्य के प्रकाश ने समान अवधिज्ञानी के साथ जाने वाला अनुगामी है, जो ज्ञान जिस क्षेत्र में उत्पन्न हुआ हो, वहां से चले जाने पर टूट जावे, साथ न जावे, इसे अननुगामी कहते हैं। शुक्ल पक्ष की चन्द्रमा के समान सम्यकदर्शनादि विशुद्ध परिणामों से उत्पन्न होकर यहां से प्रागे असंख्यात लोक तक निरन्तर बढ़ने वाला बर्द्धमान है । कृष्ण पक्ष की चन्द्रमा के समान सम्यग्दर्शनप्रादि में संक्लेश परिणामों की वृद्धि के योग से असंख्यात भाग कम होते जाना हीयमान कहलाता है। जैसे सूर्य समयानुसार घटता बढ़ता रहता है उसी प्रकार ज्ञानमें घटती बढ़ती होना अनवस्थित कहलाता है । परमावधि तथा सर्वावधि मे
दो अवधि ज्ञान चरम शरीर देहधारी उत्कृष्ट संयमीके होते हैं वह जघन्य मध्यम * उत्कृष्ट से युक्त होता है और एकदेक्ष प्रत्यक्ष से जानता है ।
द्विविधो मनःपर्ययश्च ॥१४॥ - ऋजुमति और विपुलमति ये मनःपर्याय ज्ञान के दो भेद हैं। मनःपर्यय ज्ञान ज्ञानावरगके क्षयोपशम से और वीर्यान्तरायके क्षयोपशम से उत्पन्न होने के कारण अपने मन के अवलम्बन से होने वाले ईहामति-ज्ञानपूर्वक अन्य के मन में रहने वाले मूर्त वस्तु को ही एक देश प्रत्यक्ष से विकल्प रूप से जानता है। जो ऋजुमति है वह ऋजु अर्थात् मन, वचन काय के अर्थ को सरलता से जानने वाला है, वह कालान्तर में छूट जाता है। वक्रावक्र अन्य मनुष्य के मन, वचन, काय के प्रति अर्थ को जानना विपुलमति ज्ञान है जो कि सदा स्थिर रहता है। यह ज्ञान परम संयमी मुनि के होता है ।