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(३४) सायिकमेकमनन्तं शिकालसर्वार्थयुगपदवभासम् । सकल सुखधाम सततं वंदेऽहं केवलज्ञानम ॥४॥ . सुदकेवलं च गाणं दोणिवि सरिसारित होंति बोधादो। सुदरगाणं तु परोक्खं पच्चक्खं केवलं गाणं ।।
कुञान-अनुपचारित अशुद्ध सद्भ तव्यबहारनय से मिथ्याश्रद्धान वाले जोय के कुमति, कुश्रुत विभंग ज्ञान ये तीनों कुशान होते हैं। जगत्रय व कालत्रयवर्ती समस्त पदार्थों को युगपत् अवलोकन समर्थ केवल ज्ञान उपादेय है, अन्य ज्ञान हेय हैं।
नय नयाः ॥१५॥ अर्थ-नय नी होती हैं । १ द्रव्याथिक, २ पर्यायार्थिक, ३ नंगम, ४ संग्रह ५. व्यवहार, ६ जुसूत्र, ७ शब्द; ८ समभिरूढ और ६ एवंभूत।
प्रमाण द्वारा जाने गये पदार्थ के एक अंश को जानने वाला ज्ञान 'नय' है। जिस तरह समुद्र में से भरे हुए घड़े के जल को न तो समुद्र कह सकते हैं क्योंकि समुद्र का समस्त जल धड़े के जलसे बहुत अधिक है और न उस पड़े के जल को 'प्रसमुद्र' कह सकते हैं क्योंकि वह जल है तो समुन्द्र का ही। इसी प्रकार नय को न तो प्रमाण कह सकते हैं क्यों कि वह प्रमाण के विषयभूत पदार्थ के एक अंश को जानता है और न उसे अप्रमाण ही कह सकते हैं क्योंकि वह है तो प्रमाण का ही एक अंश ।
द्रव्य को विषय करने वाला द्रव्याथिक नय है और पर्याय को जानने वाला पर्यायाथिक नय है ।
__याथिक नय के १० भेद हैं-१ पर-उपाधि निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यार्थिक नय । जैसे-संसारी जीव सिद्ध के समान शुद्ध हैं। २ सत्ताग्नाहक शुद्ध द्रव्याधिक नय, जैसे जीव नित्य है । ३ मेद कल्पना निरपेक्ष शुद्ध द्रव्यापिक नय, · जैसे द्रव्य अपने गुणपर्याय स्वरूप होने से अभिन्न है , ४ पर उपाधि सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय; जैसे-आत्मा कर्मोदय से क्रोध मान आदि भावरूप है। ५ उत्पाद व्यय सपिक्ष शुद्ध द्रव्याथिक नय, जैसे- एक ही समय में द्रव्य उत्पाद व्यय धौथ्य रूप है। ६ भेद कल्पना सापेक्ष अशुद्ध द्रव्याथिक नय, असे प्रात्मा के ज्ञान दर्शन प्रादि गुण है । ७ अन्वय द्रव्याथिक नय-जैसे द्रव्य गुरणपर्याय-स्वभाव है। ८ स्वचतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्षिक - जैसे स्वद्रव्य क्षेत्र काल भाव की अपेक्षा
द्रव्य है । ६ पर चतुष्टय ग्राहक द्रव्यार्षिक-जैसे पर द्रश्य क्षेत्र काल भाव की __ अपेक्षा द्रव्य नहीं है। १० परमभाव ग्राहक द्रव्याथिक . जैसे आत्मा ज्ञान
स्वरूप है। .......