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ये सभी सम्यक्स्य को नाश करने वाले रेखाके समान, मान हड्डी के खंभके समान
। अप्रस्यानख्यान कोष, काली पृथ्वी को माया मेंढे के सींग के समान, लोभ
नील कपड़े के समान, ये सभी अणुव्रत का घात करते हैं। प्रत्याख्यान क्रोध लि रेखाके समान है। मान बांस समान है । माया गोसूत्रके समान है । लोभ मलीन अर्थात् कीचड़ में रंगी हुए साड़ी के समान है । ये महाव्रतों को नही होने देते हैं । संज्वलन फोध जल रेखा के समान है। मान बेंत की लकड़ी के समान है। माया चमरी बाल के समान है। लोभ हलके रंग की साड़ी के समान है, ये यथाख्यात चारित्र को उत्पन्न नहीं होने देते हैं । इस प्रकार ये सोलह भेद कषाय कर्म # के हैं ।
स्त्री वेद-पुरुष के साथ रमने की इच्छा को उत्पन्न करता है । वेद - स्त्री के साथ रमने की इच्छा की उत्पन्न करता है । नपुंसक वेद - स्त्री श्रीर पुरुष दोनों से रमने की इच्छा करे उत्पन्न
करता है ।
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हास्य - हास्य (हंसी) को उत्पन्न करता है । रति - प्रेम को उत्पन्न करता है ।
अरति - प्रनीति को उत्पन्न करता है।
शोक - दुःख को उत्पन्न करता है ।
अय-अनेक प्रकार के भय को उत्पन्न करता है ।
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जुगुप्सा - ग्लानि को उत्पन्न कर देता है । इस तरह ये नोकषाय हैं ।
दर्शन मोहनीय में से मिध्यात्व का उदय पहले
सम्यक् मिथ्यात्व का उदय तीसरे गुणस्थान में और (वेदक सम्यक्त्व की अपेक्षा ) चौथे से सातवें गुणस्थान तक होता है ।
गुसास्थान में होता है,
सम्यक् प्रकृति का उदय
अनन्तानुबन्धी आदि सभी कषाय पहले गुणस्थान में, दूसरे गुणस्थान में अनन्तानुबंधी अव्यक्त होती है। चौथे गुणस्थान में अनन्तानुबन्धी का उदय नहीं होता, प्रत्याख्यानावरण का उदय पांचवें गुरणस्थान में नहीं होता, प्रत्याख्यानावर का उदय छठे गुणस्थान में नहीं होता, नोकषाय नौवें गुणस्थान तक रहती है । संज्वलन कषाय दशवें गुरपस्थान तक रहती है ।
आयुष्यं चतुविधं । ५५ ।
आयु कर्म के ४ भेद हैं नरक श्रासु, तिर्यञ्च श्रायु, मनुष्य आयु भीर देवायु । जो जीव को नारकी भय में रोके रखता है वह नश्कान है । तिर्यञ्चों के शरीर में रोके रखने वाला तिर्यञ्च आयु है, मनुष्य के शरीर में आत्मा की